शुक्रवार, 20 मई 2011

अवध की फरूआही, महोबा का आल्हा और भिखारी ठाकुर का तमाशा




-कई क्षेत्रों की लोकसंस्कृति की झलक दिखी जोगिया में -
लोकरंग 2011
कुशीनगर के जोगिया गांव में लगातार चैथी बार लोकरंग का आयोजन 26 और 27 अप्रैल को हुआ। इस बार का आयोजन और ज्यादा व्यवस्थित, भव्य और विविधता वाला था। इस बार एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि कार्यक्रमों की प्रस्तुति के लिए कथाकार सुभाष कुशवाहा की अगुवाई वाली आयोजक संस्था लोकरंग सांस्कृतिक समिति ने एक एकड़ में एक विशाल परिसर और उसमें एक विशाल मुक्ताकाशी मंच का निर्माण करा दिया था। इससे लोक कलाकारों को अपने कार्यक्रम के मंचन और दर्शकों को कार्यक्रम का पूरा आनंद लेने का मौका मिला।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण कवि रामधार त्रिपाठी की याद में समर्पित लोकरंग का उद्घाटन जनसंस्कृति मंच के राष्टीय अध्यक्ष एवं प्रख्यात आलांेचक प्रो मैनेजर पांडेय ने किया। इस मौके पर उन्होंने लोकरंग-2 पुस्तक और लोकरंग स्मारिका का विमोचन भी किया। उद्घाटन के मौके पर उन्होंने कहा कि लोक कलाओं में आपस में जोड़ने की शक्ति होती है। विद्यापति मैथली के कवि हैं लेकिन देश के हर हिस्से में उन्हें सुना और समझा जाता है। इसी प्रकार मीराबाई राजस्थान से लेकर मिथिला की कवि हैं। प्रो पांडेय ने लोक कलाओं की तीन खास विशेषताओं-शक्ति, गति और वातावरण को अपने में समेटने की क्षमता का जिक्र करते हुए कहा कि आज लोक कला और लोक संस्कृति पर पर सबसे अधिक खतरा बाजार का है। वह इसे निगल जाना चाहता है। लोकरंग जैसे कार्यक्रम लोक कलाओ को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
प्रो पांडेय के उद्घाटन वक्तव्य के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों की शुरूआत गांव की लड़कियों द्वारा प्रस्तुत सोहर और कजरी से हुई। इसके बाद पोखर भिंडा मटिहिनिया गांव से आए चिंतामणि प्रजापति और उनके साथियों ने खजड़ी वादन के सााि निर्गुन प्रस्तुत किया। आज के कार्यक्रम का प्रमुख आकर्षण पटना के निर्माण कला मंच की नाट्य प्रस्तुति विदेशिया रही। संगीत प्रधान लोक नाटकों की देश और विदेश में सैकड़ों प्रस्तुतियां कर चुकी इस संस्था ने भिखारी ठाकुर के तमाशा विदेशिया को जोगिया मंे जीवंत कर दिया। संजय उपाध्याय द्वारा निर्देशित इस नाट्य प्रस्तुति में काम की तलाश में कलकत्ता जाने वाले युवा मजदूर की पत्नी की वेदना, दुख, पीड़ा बड़ी शिद्दत से व्यक्त हुई। इस नाट्य संस्था ने लोकरंग के दूसरी शाम को हरसिंगार नाटक का मंचन किया। यह नाटक पारम्परिक लोक नाट्य डोमकथ के हरबिसन दम्पति की कहनी के जरिए स्त्री-पुरूष सम्बन्धों की जटिलताओं को सामने लाता है। दोनों ही नाटकों में निर्माण कला मंच के कलाकारों ने अपने अभिनय से ग्रामीण दर्शकों को सम्मोहित सा कर लिया।
दो दिवसीय इस कार्यक्रम में चन्द्रभान सिंह यादव और उनके साथियों ने महोबा शैली का आल्हा गायन प्रस्तुत किया तो फैजाबाद से अवधी लोक समूह ने फरूआही पेश की। आल्हा गायन की बुंदेलखंड में मुख्यतः चार शैलिया-महोबा, करगवां, दतिया और सागर गायन प्रचलित हैं। ढोलक और मंजीरें के थाप पर चन्द्रभान सिंह ने जब ओजस्वी स्वर में आल्हा, उदल द्वारा अपने पिता के हत्या का बदला लिए जाने की लोककथा सुना कर लोगों को रोमांचित कर दिया। अवधी लोक समूह द्वारा प्रस्तुत फरूआही एकदम नए शैली का था और इस समूह ने परम्परागत फरूआही नृत्य व गीत में कई प्रयोग किए थे। नृत्य के दौरान कलाकरों ने हैरतअंगेज करतब दिखाए। नए वाद्य यंत्रों और नृत्य की नई भंगिमाओं ने लोगों का मन मोह लिया। बुन्देली कछवाहा समाज का अवधूती शब्दों को गायन सुनना एक नए अनुभव से गुजरना था। वाद्य यंत्र ढपली, किकहरी पर दाता साईं की अराधना मेें यह गायन कछवई समाज करता है। दाता साईं के शब्द बहुत ही गूढ हैं और इस संगीत व साहित्य परम्परा पर ज्यादा काम नहीं हुआ है। लोकरंग में मंगल मास्टर और अंटू तिवारी ने भोजपुरी गीतों की प्रस्तुति की। लोकरंग में आए सभी कलाकारों को आयोजन समिति द्वारा स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया।

मिथकों की प्रासंगिकता पr हुई विचारोत्तेजक संगोष्ठी

लोकरंग के दूसरे दिन दोपहर में लोकसंस्कृति में मिथ की प्रासंगिकता पर विचारोत्तेजक संगोष्ठी हुई। संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात आलोचक प्रो मैनेजर पांडेय ने कहा कि मिथकों की बात करते समय लोक गाथा, लोकरीति, लोकविश्वास, लोकरूढि को अलग-अलग रख कर विचार करने की जरूरत है। उन्होंनें कहा कि कथा स्वभाव से ही मिथकीय है, इसलिए कथा में सर्वाधिक मिथक गढ़े गए। प्रो पांडेय ने कहा कि सत्ता लोक का धन, सम्पदा का ही अपहरण नहीं करता बल्कि कला और दिमाग पर भी कब्जा करने की कोशिश करता है। इसलिए मिथकों पर कब्जा करने की राजनीति पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। सत्ता ने लोकसंस्कृति और मिथकों की पहले उपेक्षा की, फिर विरोध किया और उससे भी काम नहीं चला तो विकृत करने का प्रयास किया। उन्होंने पौराणिक एवं ऐतिहासिक मिथकों की चर्चा करते हुए कहा कि मिथकों को पवित्र मानकर उस पर जल चढाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने इतिहास से मिथकों के गहरे रिश्ते को समझने पर जोर दिया।
इसके पूर्व वरिष्ठ लेखक डा तैयब हुसैन ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि लोक संस्कृति में सब कुछ ठीक नहीं है। इसमें से अपने हित की बात को लेना होगा। उन्होंने मिथक की तुलन उस चाकू की तरह की जो डाक्टर के हाथ में होने पर जान बचाने के काम में आता है और हत्यारें के पास होने पर जान लेने में। युवा आलोचक बजरंग विहारी तिवारी ने अपसंस्कृति और जनसंस्कृति के बीच निरन्तर टकराव की बात करते हुए कहा कि मिथकों का सबसे अधिक निर्माण दलित साहित्य ने किया है। उन्होंने लोकसंस्कृति की संशलिष्टता को राजनीति की तरह ढालने के प्रयाए का विरोध किया। वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन ने कहा कि मिथकों का इस्तेमाल सधे ढंग से करना होगा। कवि एवं रीवां विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के दिनेश कुशवाह ने कहा कि मिथक लोक साहित्य में ऐसे रचे-बसे होते हैं कि सत्य से अधिक शक्तिशाली हो जातंे हैं। उन्होंने इस बात से असहमति जताई कि मिथकों को कोई वैज्ञानिक आधार है। हाजीपुर से आए डा प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन ने कहा कि विज्ञान चाहे कितनी भी तरक्की कर ले, मिथक हमारे जीवन को संजीवनी देते रहेंगे। गलत या विकृत मिथक खोटे सिक्कों की तरह नहीं चलते हैं। वरिष्ठ पत्रकार अशोक चैधरी ने संगोष्ठी में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि समाज को मिथकों के जंजाल से निकालकर ठोस यथार्थ पर खड़ा करने की जरूरत है। उन्होंने पूरे बहस को यह कह कर एक नई दिशा दे दी कि आखिर यह एक मिथक ही तो है कि पूंजीवाद समाप्त नहीं हो सकता है। यह मिथक तो आधुनिक सत्ताओं द्वारा सचेतन पर गढे गए हैं जिनको तोड़ना आज की समय की सबसे बड़ी जरूरत है। मिथ के समाज शास्त्र पर उल्लेखनीय काम करने वाले डा गोरेलाल चंदेल ने कहा कि पौराणिक मिथ ज्यों का त्यों लोक मिथक में नहीं आता है। लोकसंस्कृति में मिथ लोक को उर्जा एवं षक्ति देता है। जो लोक के लिए उपयोगी है वही लोकसंस्कृति में बना रहता है। छत्तीसगढ़ी गौर उत्सव के कई सन्दर्भों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इतिहास, मिथ और समाजशास्त्र का निरन्तर द्वंद रहता है और इसके भीतर से मिथ का लोकव्यापीकरण होता है।
गोष्ठी का संचालन कवि एवं जनसंस्कृति मंच लखनउ के संयोजक कौशल किशोर ने कहा कि जनसंस्कृति श्रम और संघर्ष की संस्कृति है। ईश्वरीय सत्ता को स्थापित करने वालों ने मिथकों का जाल बुना है लेकिन इसके बरक्स जनता ने अपने मिथक रचे और गढे हैं। संगोष्ठी में डा दुखी शुक्ल, सुधांशु कुमार चक्रवर्ती ने भी अपने विचार रखे। धन्यवाद ज्ञापन लोकरंग सांस्कृतिक समिति के संयोजक एवं कथाकार सुभाष कुशवाहा ने किया।

प्रतिरोध का सिनेमा का दो दिवसीय इन्‍दौर फिल्‍मोत्‍सव

मौजूदा दौर में आम बंबईया फिल्मों द्वारा समय व समाज की वास्तविकताओं से
दूर जिस अपसंस्कृति व फूहड़ता को समाज में बड़े पैमाने पर फैलाया जा रहा
है, उसके विरुद्ध भी एक और सिनेमा है जो हमें समाज की हकीकत से रूबरू
कराने का सार्थक प्रयत्न कर रहा है। एक ऐसा सिनेमा जिसमें आज के सुलगते
हुए सवालों को उठाया गया है, जिसके केंद्र में है हाशिये के लोग, उनका
जीवन संघर्ष, समस्याएं और भूमंडलीकरण के दौर में जन्म लेते संवेदनहीनता
के नये स्वरूप। प्रतिरोध का सिनेमा प्रतिबद्ध फिल्मकारों की ऐसी ही
फिल्मों को मंच देने का एक सार्थक प्रयत्न है। जन संस्कृति मंच द्वारा
इलाहाबाद, बरेली , लखनऊ, पटना, गोरखपुर, नैनीताल, भिलाई इत्यादि विभिन्न स्थानों पर गत छः वर्षों में 16 फिल्मोत्सव इसी तर्ज पर सफलतापूर्वक आयोजित किये जा चुके
हैं। सांस्कृतिक एवं सामाजिक सरोकारों को पूर्णत: समर्पित इंदौर की कला
संस्था 'सूत्रधार’ के विशेष अनुरोध पर जन संस्कृति मंच ने म.प्र. में
पहली बार इंदौर में दो दिवसीय प्रतिरोध का सिनेमा फिल्मोत्सव का आयोजन
किया। दिनांक 16 व 17 अप्रैल, 2011 को इंदौर प्रेस क्लब के राजेंद्र माथुर
सभागृह में यह फिल्मोत्सव 'सूत्रधार’ एवं 'जन संस्कृति मंच’ के संयुक्त
तत्वावधान में इंदौर प्रेस क्लब के सहयोग से संपन्न हुआ।
शुभारंभ कार्यक्रम में भूमिका रखते हुए 'सूत्रधार’ के संयोजक सत्यनारायण
व्यास ने फिल्मोत्सव आयोजित करने के उद्देश्य को स्पष्ट किया। 'जन
संस्कृति मंच’ के फ़िल्म समूह द ग्रुप के संयोजक संजय जोशी ने कार्यक्रम की रूपरेखा पर प्रकाश
डालते हुए पूर्व में आयोजित किये गये फिल्मोत्सवों के अनुभवों को दर्शकों
के समक्ष रखा। उन्होंने आशा व्यक्त की कि भविष्य में इंदौर में प्रतिवर्ष
तीन या चार दिवसीय फिल्मोत्सव भी आयोजित किये जा सकेंगे। विशेष अतिथि
सुप्रसिद्ध फिल्म लेखक व समीक्षक श्री बृजभूषण चतुर्वेदी ने इंदौर में
पहली बार आयोजित किये जा रहे समस्यामूलक फिल्मों के इस उत्सव के प्रति
प्रसन्नता व्यक्त करते हुए जानकारी दी कि बंबई, दिल्ली इत्यादि बड़ी
जगहों पर कई वर्षों से डॉक्यूमेंटरी फिल्मों के उत्सव नियमित तौर पर
आयोजित किये जाते हैं, लेकिन इंदौर में 'सूत्रधार’ व 'जन संस्कृति मंच’ ने यह
सार्थक पहल की है। उन्होंने याद दिलाया कि 'सूत्रधार’ ने ही गत वर्ष
दिल्ली के स्वयंसेवी संगठन 'साधो’ के सहयोग से एक काव्य फिल्मोत्सव भी
आयोजित किया था, जिसे देखना एक अद्भुत अनुभव रहा। कार्यक्रम के मुख्य
अतिथि सुप्रसिद्ध फिल्म समीक्षक व फिल्म विधा के पुरोधा श्रीराम
ताम्रकर ने आयोजन पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुये आशा व्यक्त की कि इस तरह
के लीक से हटकर फिल्मों के उत्सव भविष्य में भी आयोजित किये जाते रहेंगे।
इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष प्रवीण खारीवाल ने अपने संबोधन में
आश्वस्त किया कि इंदौर प्रेस क्लब भविष्य में भी इस तरह के आयोजन को
पूर्ण सहयोग देता रहेगा।
फिल्मोत्सव का शुभारंभ सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक संजय काक की फिल्म
‘जश्ने आजादी’ से हुआ। लगभग सवा दो घंटे की यह फिल्म कश्मीर के जनमानस को
अभिव्यक्त करते हुए कई सवाल उठाती है और दर्शकों को उद्वेलित कर देती है।
फिल्म ने सचमुच बड़ी गहमागहमी पैदा की , इसी से जाहिर है कि समाप्ति के बाद
भी दर्शक फिल्म के बारे में और कश्मीर के बारे में और भी संवाद करना
चाहते थे।
दूसरे दिन रविवार 17 अप्रैल को फिल्मोत्सव का प्रारंभ बच्चों के लिए बनाई
गई एक बड़ी प्यारी फ्रेंच फिल्म 'द रेड बलून’ से हुआ। एक बच्चे व लाल
गुब्बारे की मैत्री को बड़े स्वाभाविक व मार्मिक रूप से इस फिल्म में
चित्रित किया गया है। बड़ी संख्या में उपस्थित बच्चों ने फिल्म का भरपूर
आनंद लिया। तत्पश्चात ‘ ओपन-ए-डोर’ सीरिज की छह संवाद रहित लघु फिल्में
प्रदर्शित की गईं। विभिन्न देशों की इन फिल्मों का केंद्रीय तत्व यह
निर्देश था कि एक बंद दरवाजे के खुलते ही पांच मिनट में बच्चे क्या करेंगे
या क्या कर सकते हैं? कई देशों के फिल्मकारों ने इस थीम पर सुंदर फिल्मों
का निर्माण किया, जिनमें से छह फिल्मों को यहां दिखाया गया ।
अगली फिल्‍म संकल्प मेश्राम निर्देशित ‘ छुटकन की महाभारत’ के केंद्रीय पात्र छुटकन के दिवा स्‍वप्‍नों से पैदा हुई हास्‍यास्‍पद स्थितियों ने दर्शकों को लोटपोट कर दिया।
भोजनावकाश के बाद के सत्र में दो एनिमेशन फिल्‍म ‘ ऐ चेयरी टेल’ व ‘नेबर्स’ एवं चार म्यूजिक विडियो फिल्‍म ‘अमेरिका अमेरिका’, ‘गांव छोड़ब नाही’, ‘रिबन्‍स फॉ‍र पीस ’ व ‘ मैंने तुझसे ये कहा’ के अलावा चार लघु फिल्‍में ‘गाड़ी लोहरदगा मेल’, ‘शिट’, ‘प्रिंटेड रेनबो’ और ‘नियामराजा का विलाप’ दिखाई गई। रांची-लोहारदगा के बीच चलने वाली पेसेंजर ट्रेन के अंतिम सफर में
लोकगायकों व कलाकारों द्वारा अभिव्यक्त किये गये उद्गारों को 'गाड़ी लोहरदगा मेल’ में बड़ी
मार्मिकता से फिल्माया गया। 'शिट’ में आजादी के 63 वर्ष बाद भी अपने सिर पर मैला ढोते सफाईकर्मियों की समस्या को उठाया गया है। अकेलेपन से जूझती एक अकेली बूढ़ी औरत व उसकी साथी बिल्‍ली की भावुक कथा ‘प्रिंटेड रेनबो’ में दर्शाई गई है। उड़ीसा में नियागिरी पहाड़ को राज्य सरकार द्वारा एक मल्टीनेशनल कंपनी को बेच दिये जाने पर पैदा हुए पर्यावरण संकट का नियामराजा का मिलाप में हृदयस्पर्शी चित्रण किया गया है।
सायंकालीन अंतिम सत्र सुप्रसिद्ध फिल्मकार आनंद पटवर्धन की सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली फिल्म- 'राम के नाम’ से प्रारंभ हुआ। सवा घंटे की इस फिल्म में धर्म के नाम पर सांप्रदायिक उन्माद, असहिष्णुता और हिंसा फैलाने वाली कुत्सित राजनीति का भंडाफोड़ करने के साथ ही सच्चाई से रूबरू कराने का प्रयत्न भी किया गया है। समारोह की अंतिम प्रस्तुति दो घंटे की फीचर
फिल्‍म ‘बाएं या दाएं’ थी। फिल्‍मकार बेला नेगी की इस प्रथम फिल्‍म को गंभीर रुचि के फिल्म दर्शकों व समीक्षकों द्वारा पूरे देश में सराहा गया है।
इंदौर फिल्मोत्सव में बेला नेगी स्वयं भी उपस्थित थीं। उन्होंने अपनी इस फिल्म के प्रदर्शन के पूर्व दर्शकों से अपने अनुभव भी सांझे किए। पूर्ण्‍रूप से उत्तराखंड में फिल्माई गई इस फिल्म के निर्माण में आई व्यावहारिक दिक्कतों व कठिनाइयों के बारे में भी उन्होंने काफी जानकारी दी। फिल्म में रमेश नाम के एक सीधे-सादे पहाड़ी युवक की कहानी है जो बंबई की ग्लैमरयुक्त दुनिया से उकताकर अपने गांव लौट आया है और वहीं सादगी और शांति का जीवन व्यतीत करना चाहता है। गांव से जबकि हर व्यक्ति बंबई जाने के सपने दिन-रात देखता है। वहीं इस युवक का गांव में लौट कर आना लोगों को हजम नहीं होता। एक सीधी-सादी कहानी को जितनी भावुकता व शिद्दत से बेला ने फिल्माया है वह देखने से ताल्लुक रखता है। फिल्मोत्सव में उपस्थित
दर्शकों ने भी फिल्म को भरपूर सराहा और फिल्म समाप्ति के पश्चात भी बेला से गुफ्तगू होती रही।
इंदौर फिल्मोत्सव में दो दिनों में कुल 21 फिल्में दिखाई गईं। निश्चित ही दर्शकों के मानस में इस फिल्मोत्सव ने एक अमिट छाप छोड़ी है।
इंदौर के किसी आयोजन में सम्‍भवत: पहली बार दर्शकों से सहयोग करने की अपील की गई। इस वास्ते आयोजन स्थल के बाहर सहयोग के लिए दो डिब्बे रखे गए थे जिनमें लोगों ने प्रतिरोध का सिनेमा की मूल भावना का सम्‍मान करते हुए यथायोग्‍य सहयोग भी किया। हॉल के बाहर गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के सक्रिय कार्यकर्ताओं बैजनाथ मिश्र और गोपाल राय द्वारा संचालित फिल्मों की डीवीडी और पुस्तक प्रदर्शनी ने भी लोगों को आयोजन से जुड़े रहने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सत्यनारायण व्यास
संयोजक, सूत्रधार, इंदौर

अन्ना हजारे का आंदोलन, उसका रूप, उद्देश्य और सार्थकता

प्रो मैनेजर पांडेय, अध्यक्ष जनसंस्कृति मंच
अन्ना हजारे के आंदोलन और अनशन पर जल्दीबाजी में राय बनाना, उसे स्वीकार करना या अस्वीकार करना ठीक नहीं है क्योंकि अन्ना हजारे ने घोषित रूप से जिस समस्या के खिलाफ आंदोलन व अनशन किया था, उस समस्या की गंभीरता, उसको हल करने की जरूरत देश भर के व्यापक जनसमुदाय को महसूस हो रही है और इसी का परिणाम है कि अन्ना के आंदोलन और अनशन को समाज के विभिन्न वर्गों व समुदायों का इतना बड़ा समर्थन मिला। अन्ना हजारे एक गांधीवादी व्यक्ति हैं; उनके व्यक्तित्व, विचार, कार्यशैली में गांधी के विचारों और कार्यशैली का गहरा प्रभााव दिखाई देता है। जैसे स्वंय गांधी के व्यक्तित्व, विचार और कार्यशैली में अनेक अंतर्विरोध थे, इसके बावजूद गांधी स्वाधीनता आंदोलन के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे। गांधीवादी होने के नाते अन्ना के विचारों और कार्यशैलियों में अन्तर्विरोध सभव है लेकिन उन अन्तर्विरोधों के कारण जैसे स्वाधीनता आंदोलन में गांधी की भूमिका का महत्व समाप्त नहीं हो जाता, उसी तरह से अन्ना के विचारों, कार्यशैली में अंतर्विरोध के कारण उनके आंदोलन, अनशन का महत्व कम नहीं होता। मेरी नजर में अन्ना के आंदोलन, अनशन का सबसे बड़ा महत्व तो यही है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा पूरे भारतीय समाज के सामने अपनी सारी जटिलताओं के साथ उजागर हुआ और भ्रष्टाचार को खत्म करने की व्यापक चिंता हर तबके के लोगों के मन में पैदा हुई। यह कोई आज के दौर के भारतीय राजनीति, समााजिक, आर्थिक परिस्थिति में छोटी बात नहीं है।
अन्ना हजारे के आंदोलन के पीछे कौन लोग थे, आंदोलन का उद्ेश्य क्या है, अन्ना व उनके साथी जिस लोकपाल बिल और लोकपाल नाम की संस्था की बात कर रहे हैं, उसका स्वरूप क्या है, क्या होना चाहिए, यह सभी बातें विचारणीय हैं और इस पर बहस भी होनी चाहिए। देखिए, अन्ना के आंदोलन का समर्थन करने वाले दो तरह के लोग थे-एक जो खुले रूप से आंदोलन के साथ थे। कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो छिपे तौर पर अन्ना का समर्थन कर रहे हैं। ऐसे लोगों पर अधिक बात करना मुश्किल है क्योंकि केवल अनुमान में वास्तविकता से ज्यादा अनुमान करने वाले के इरादे की अभिव्यक्ति होती है। जहां तक खुले रूप से समर्थन करने वालों में एक न्यायाधीश जो कर्नाटक की सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ काम कर रहे हैं, एक वकील जो लोकतांत्रिक अधिकारों व मानवाधिकार के हनन के विरूद्ध मुकदमे लड़ा करते हैं, एक आर्यसमाजी स्वामी जो माओवादियों तक के समर्थन में रहने के कारण बहुत लोगों के आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। मै हेगड़े, प्रशांत भूषण, अग्निवेश की बात कर रहा हूं। इस आंदोलन का समर्थन करने वालों में वंदना शिवा भी थीं। यही नहीं मै जिस दिन जंतर-मंतर पर उपस्थित था, मुस्लिम समुदाय के एक बड़े नेता जो कई संस्थााओं के अध्यक्ष हैं, उन्होंने अपने समुदाय की ओर से अन्ना हजारे के आंदोलन और उसके उद्देश्यों का समर्थन किया। एक तरफ आंदोलन का इतना व्यापक तबकों का समर्थन था तो दूसरी ओर आंदोलन का विरोध करने वाले कौन लोग थे ? मेरी जानकारी में आंदोलन का विरोध करने में दो व्यक्ति खास तौर पर सामने आए थे-कांग्रेस के दिग्विजय सिंह और दूसरे अमर सिंह। इन दोनों की भारतीय राजनीति और भारतीय समाज में कितनी साख व कैसी छवि है, इससे सब परिचित हैं। मै तो यह कहूंगा कि अमर सिंह जिस चीज का विरोध करें उसमें कुछ न कुछ अच्छाई जरूर होगी, इसका अनुमान किया जा सकता है।
अन्ना हजारे के कुछ बयानों के कारण थोड़ी गलतफहमियां पैदा हुईं। एक तो उन्होंने नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा की। इससे कुछ दुखी और नाराज हुए। यह दुख व नाराजगी समझ में आने लायक है और जायज भी है पर बाद में अन्ना ने जो सफाई दी, उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। मै इस प्रसंग में एक बात और कहूंगा। अपने देश में हर आंदोलन के विचार और व्यवहार में साजिश सूंघने और खोजने की कुछ लोगों की आदत है जिसको वह कभी-कभी क्रांतिकारी दृष्टिकोण के रूप में भी जाहिर करते हैं। बहुत पहले काल माक्र्स ने पेरिस कम्यून की घटना पर दो साक्षात्कार दिए थे जिसका मैने हिन्दी में अनुवाद किया था जो मेरी किताब संकट के बावजूुद में है। इसमें से एक साक्षात्कार में काल माक्र्स ने कहा था कि क्रांति केवल एक पार्टी ही नहीं करती पूरा देश और समाज करता है। अन्ना हजारे व्यक्तिगत रूप से कोई क्रांतिकारी व्यक्तित्व नहीं है। उनका आंदोलन, अभियान भी क्रांतिकारी नहीं है लेकिन पूरे देश-समाज को क्रांतिकारी बनाने के लिए जो पहला कदम जरूरी है, वह है किसी ऐसी बड़ी समस्या के रूप में देश की जनता को जगाने और आन्दोलित करने का काम, अन्ना हजारे के माध्यम से हुआ।
भ्रष्टाचार का गहरा रिश्ता पूंजीवाद से है। अपने जन्म से ही पूंजीवाद झूठ और लूट की व्यवस्था रही है। आज उसके झूठ और लूट का अनंत विस्तार हुआ है। इसलिए सचमुच इस देश से भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए पूंजीवाद के विरूद्ध व्यापक जागरण और आंदोलन की जरूरत है। मुझे चिंता के साथ अफसोस है कि इस दिशा में काम करने के बदले जनजागरण का पहला कदम जो हजारे ने उठाया है, उस कदम की आलोचना और निंदा करने में कुछ लोग लगे हुए हैं। मै तो यह भी कहूंगा कि हजारे और उनके सहयोगी जिस लोकपाल बिल, विधेयक की बात कर रहे हैं, उसके स्वरूप पर और लोकपाल की नियुक्ति की शर्तों पर गंभीरता से विचार होना चाहिए और प्रस्तावित मसौदे की कमियांे को सामने लाने, लोकपाल विधेयक को मजबूत, कारगर और परदर्शी बनाने की दिशा में अपनी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए। केवल उस आंदोलन की निंदा में नहीं रहना चाहिए। प्रस्तावित विधेयक में यह बात है कि लोकपाल की नियुक्त में भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत या भारत रत्न प्राप्त लोगों की सलाह ली जानी चाीिहए। भारत सरकार या कोई भी सरकार कैसे लोगों को पुरस्कृत और सम्मानित करती है, सब जानते हैं। इसलिए केवल भारत रत्न प्राप्त करना, लोकपाल नियुक्ति में सलाह देने की पर्याप्त योग्यता नहीं हो सकती है। लता मंगेशकर भारत रत्न प्राप्त हैं, उनके गायन के हम उनका सम्मान करते हैं लेकिन लोकपाल की नियुक्ति में उनकी उपयोगी भूमिका हो सकती है, मुझे नहीं लगता। भारत मूल के जिन लोगों को नोबेल, मैग्सेसे पुरस्कार मिला है, उन लोगों की भी सलाह लेनी की बात कही गई है। मुझे इस प्रसंग में पहली आपत्ति तो यही है कि इन लोगों को पुरस्कार कानून बनाने या लोकपाल की नियुक्ति करने की योग्यता के लिए नहीं मिला है बल्कि साहित्य, कला, संस्कृति, विज्ञान आदि में योगदान के लिए मिला है। इसलिए जिन काराणों से उनको पुरस्कार मिला है, उसी में उनकी सलाह को कोई अर्थ है। कुल मिलाकर लोकपाल विधेयक और लोकपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध मंे जो बातें सामने आ रही हैं, उससे जाहिर है उन्ही से सलाह ली जाएगी जो देश के सम्पन्न, सभ्रान्त अभिजन है जबकि भ्रष्टाचार की मार का सबसे अधिक शिकार आम आदमी है। क्या लोकपाल बिल के बनाने में भारत के किसानों, मजदूरों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों, दलितों आदि की भी कोई भूमिका, आवाज होगी ? इन बातों पर ध्यान देने व जोर देने की जरूरत है न कि अपनी संतुष्टि के लिए बाल की खाल निकालने की प्रक्रिया में लगे रहने की। शुद्धतावाद और आत्ममुग्धता से न कोई जनजागरण होता है न सामाजिक आंदोलन या सामाजिक परिवर्तन होता है। मै तो अंत में यह भी कहूंगा कि अभी हमारे देश में सच्चे लोकतंत्र की रक्षा करने का सवाल सबसे बड़ा सवाल है और सच्चे लोकतंत्र का एक मात्र दुश्मन है राजनीति में भ्रष्टाचार की संस्कृति। सच्चे लोकतंत्र की रक्षा के बाद ही समाजवाद को ले आने की कोई संभावना बन सकती है।
इस आंदोलन को माीडिया द्वारा बहुत हाइप दिए जाने के सवाल पर मेरा कहना है कि प्रिंट मीडिया की तुलना में इलेक्टानिक मीडिया ने इससे अधिक कवरेज दिया। इलेक्टनिक मीडिया के लिए कोई भी सनसनीखेज मामला अधिक आकर्षक होता है, अब उसमें विचार-विश्लेषण की संभावना खत्म हो गई है। समर्थन करने वाले लोगों को व्यक्तिगत जानकारी के आधाार पर और जो आंखों से देखा उसमें सात साल के बच्चों से लेकर 77 साल के बूढे थे। इसमें छात्र-छात्राएं, वैज्ञानिक, साहित्यकार, अध्यापक थे। मध्य वर्ग के लोग थे, कुछ राजनीतिक नेता थे, फिल्मी दुनिया के भी कुद लोग थे। ये सब के सब केवल मनोरंजन की तलाश में दिल्ली की सड़कों पर घूमने वाले मघ्य वर्ग के लोग नहीं थे। रही बात देश के पैमाने पर शहरों से जो सूचनाएं मिली है कि अनेक वर्गों के लोग समर्थन कर रहे थे। आप यह कह सकते हैं कि मजदूर और उनके संगठन दिल्ली में नहीं थे तो यह मजदूरों को संगठित करने और उनका आंदोलन चलाने वालों का दायित्व था कि मजदूरों की आवाज भ्रष्टाचार के खिलाफ समाज के सामने आए। वैसे इस आंदोलन का विरोध करने वाले जो लोग हैं, वे क्या किसान-मजदूर हैं या मध्य वर्ग के आत्ममुग्ध बुद्धिजीवी हैं या भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे राजनीतिक दल के नेता।
इस आंदोलन को केवल अन्ना हजारे और उनके पक्ष में सक्रिय पांच-दस लोगों पर छोड़कर इस देश के जागरूक लोगों, बुद्धिजीवियों, देशभक्तों, इमानदार राजनीतिज्ञों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बैठ नहीं जाना चाहिए। दूसरे के आन्दोलनों की आलोचना व निन्दा करने से बेहतर है कि स्वंय उन आन्दोलनों को सही दिशा देने के लिए सक्रिय होना या नया आन्दोलन खड़ा करना। सबसे पहला और आखिरी सवाल है कि भ्रष्टाचार इस देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था, सामाजिक संवेदनशीलता, सांस्कृतिक चेतना के लिए कैंसर की तरह खतरनाक है या नहीं ? यदि है तो उससे लड़ने के लिए विभिन्न तरीकों से लगना चाहिए जो अन्ना हजारे से सहमत हैं या नहीं सहमत हैं।

-समकालीन जनमत से साभार

सोमवार, 9 मई 2011

मजदूरों के दमन के खिलाफ जनसंगठन लामबंद

छह मई को प्रेस क्लब में राजनीतिक दलों, जनसंगठनों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं की बैठक में पारित प्रस्ताव, मांग और निर्णय

गोरखपुर। गोरखपुर के जनसंगठनों, राजनीतिक दलों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक बड़ी बैठक में अंकुर उद्योग लि के प्रबंधतंत्र द्वारा किराए पर बुलाए गए गुण्डों द्वारा की गई फायरिंग में 20 मजदूरों के घायल होने और इस मामले में प्रशासन द्वारा एकपक्षीय व दुर्भावनापूर्ण कार्यवाही किए जाने की कड़ी भत्र्सना की गई। बैठक में प्रशासन से मजदूरों व मजूदर नेताओं पर दर्ज मुकदमे वापस लेने, गोलीबारी के लिए जिम्मेदार अशोक जालन, कुख्यात गुंडे प्रदीप सिंह सहजनवा और उसके साथियों को अविलंब गिरफतार करने और मजदूरों की समस्याओं का हल निकालने के लिए वार्ता शुरू करने की मांग की गई। मांग पूरी न होने पर कलेक्टेट में विशाल धरना-प्रदर्शन करने का एलान किया गया।
आज की बैठक में भाकपा माले, माकपा, भाकपा, समाजवादी जनपरिषद नेताओं के अलावा जनसंस्कृति मंच, पीयूसीएल, पीयूएचआर, सीटू आदि संगठनों प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। बैठक में मजदूर आंदोलन को बाहरी लोगों और माओवादियों द्वारा प्रेरित कहे जाने पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की गई और कहा गया कि अपने अधिकारों की मांग को लेकर होने वाले हर आंदोलन को आजकल माओवादी कहना एक फैशन हो गया है। हास्यास्पद यह है कि मंडल और जिला प्रशासन के शीर्ष अधिकारी भी कारखानेदारों और सदर सांसद की भाषा बोल रहे हैं। प्रशासन यदि अपनी उर्जा का एक अंश भी मजदूरों, मजदूर नेताओं और उनके आंदोलन का समर्थन करने वाले लोगों की पृष्ठिभूमि जानने के बजाय कारखानों में श्रम कानूनों का पालन कराने और मजदूरों को शोषण से बचाने में खर्च करता तो आज यह स्थिति नहीं उत्पन्न होती। औद्योगिक अशांति की बात करने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि मजदूरों के हक पर डाका डालकर कोई शांति नहीं हो सकती है। औद्योगिक विकास का मतलब यह नहीं है कि कारखानेदार नियम-कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए अपनी जेब भरे और मजदूर हाड़तोड़ मेहनत करने के बावजूद इतना भी कमा न सके कि भूख से मरने से बच जाए। बैठक का संचालन जनसंस्कृति मंच के प्रदेश सचिव मनोज कुमार सिंह ने किया। बैठक में पीयूएचआर के जिला अध्यक्ष सुभाष पाल एडवोकेट, वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन, वरिष्ठ कवि देवेन्द्र आर्य, प्रमोद कुमार, पीयूसीएल के जिला संयोजक फतेहबहादुर सिंह, सीपीआई एमएल के जिला सचिव राजेश साहनी, सीपीआई एम के जिला सचिव जावेद अजीज, उत्तर प्रदेश मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव्स एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष राकेश श्रीवास्तव, जनसंस्कृति मंच के प्रदेश सचिव एवं गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयोजक मनोज कुमार सिंह, जनसंस्कृतिमंच के गोरखपुर के संयोजक अशोक चैधरी, एनएपीएम के केशव चन्द्र, पीयूएचआर के जिला सचिव श्याम मिलन एडवोकेट, परिवर्तनकामी छात्र संगठन के चक्रपाणि, संस्कृति कर्मी रामू सिद्धार्थ, डा अबुलैस अंसारी, अमोल राय, आईएच सिद्दीकी, मारकंडेय मनि, वनटांगिया संघर्ष समिति के विनोद तिवारी, अख्तर अली, विवेक सिंह, नरेन्द्र सिंह, शिवनन्दन सहाय, रामकिंकर यादव आदि उपस्थित थे। बैठक में मजदूर नेता तपिश मैंदोला और प्रमोद कुमार ने भी अपनी बात रखी।
प्रस्ताव
1-गोरखपुर जिला और मंडल प्रशासन तथा कारखानेदारों व उनके समर्थकों द्वारा मजदूर आंदोलन को बाहरी और माओवादियों द्वारा प्रेरित बताना श्रमिक समाज का अपमान है। यह आंदोलन पूरी तरह से लोकतांत्रिक तौर-तरीकों और फैक्टी मजदूरों द्वारा संचालित है। अपने अधिकारों की मांग करना कोई नाजायज काम नहीं है और इसका सरकार, प्रशासन और कारखानेदारों द्वारा सम्मान किया जाना चाहिए।
2-तीन मई की घटना के लिए पूर्णतः अंकुर उद्योग लिमिटेड का प्रबंध तंत्र जिम्मेदार है। मजदूर दिवस के मौके पर रैली में भाग लेना मजूदरों को अधिकार है और इसे कोई छीन नहीं सकता। मजदूर दिवस पर आयोजित रैली में भाग लेने पर डेढ़ दर्जन मजूदरों को निलम्बित कर खुद प्रबंध तंत्र ने विवाद की शुरूआत की। मजदूरों ने जब लोकतांत्रिक तरीके से इसका विरोध किया तो किराए पर बुलाए गए गुण्डे प्रदीप सिंह सहजनवा और उसके साथियों ने सीधे मजदूरों पर फायरिंग की। यह एकतरफा मजदूरों पर हमला था। प्रशासन और कारखानेदार का यह कहना कि मजदूरों द्वारा पथराव व फायरिंग की गई, पूरी तरह से गलत है। यदि मजदूरों द्वारा जवाबी कार्रवाई की गई तो कोई घायल क्यों नहीं हुआ ? जबकि गुण्डों की फायरिंग में 20 मजदूरों को गोली लगी।
3-प्रशासन की कार्यवाही एकतरफा और दुर्भावना पूर्ण है। एकदम साफ है कि मजदूरों पर धुआंधार फायरिंग की गई जिसमें 20 मजदूर घायल हुए। इसके बावजूद मजदूरों और उनके नेताओं के खिलाफ गंभीर आपराधिक धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया। प्रशासन की यह कार्यवाही एकदम अस्वीकार्य है और हम इसकी भत्र्सना करते हैं।
मांग
1-मजदूरों और मजदूर नेताओं पर दर्ज मुकदमे बिना शर्त अविलम्ब वापस लिए जाएं
2-मजदूरों पर फायरिंग के लिए जिम्मेदार अंकुर उद्योग लि के मालिक अशोक जालान, कुख्यात अपराधी प्रदीप सिंह सहजनवा और उसके सभी साथियों को तुरन्त गिरपतार किया जाए।
3-जिला प्रशासन मजदूरों की मांग और समस्या के निपटारे के लिए बैठक आयोजित करे जिसमें प्रशासन, श्रम विभाग, मजदूर प्रतिनिधियों के अलावा नागरिक समाज के दो प्रतिनिधि भी शामिल हों।
4-यह सुनिश्चित किया जाए कि गीडा और बरगदवा स्थित औद्योगिक इकाइयों में श्रम कानूनों का पूरी तरह पालन हो। औद्योगिक इकाइयों में श्रम कानूनों के अनुपालन की स्थिति के पर्यवेक्षण के लिए प्रशासन त्वरित कार्यबल गठित करे जिसमें नागरिक समाज के भी प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए।
5-घायल मजदूरों के निःशुल्क ओर बेहतर इलाज की व्यवस्था की जाए और प्रत्येक घायल मजदूर को दो-दो लाख रूपए का मुआवजा दिया जाए
6-अंकुर उद्योग में लाक आउट को अवैध घोषित कर फैक्टी को खोल जाए और सभी निलम्बित मजदूरो को काम पर वापस लिया जाए
निर्णय
1-मजदूरों पर फायरिंग की घटना की स्वतंत्र जांच के लिए एक कमेटी गठित की गई जिसके अध्यक्ष पीयूसीएल के जिला संयोजक फतेहबहादुर सिंह होंगे। इसके अलावा इसमें पीयूएचआर के सुभाष पाल एडवोकेट, श्याममिलन एडवोकेट, शिवनंदन, राकेश श्रीवास्तव होंगे। यह कमेटी एक सप्ताह मंे अपनी जांच रिपोर्ट सार्वजनिक करेगी।
2-यदि हमारी मांगों पर पांच दिन में कार्यवाही नहीं होती है तो गोरखपुर के जनसंगठन, मजदूर संगठन, राजनीतिक दल, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता कलेक्टेट में विशाल-धरना प्रदर्शन करेंगे।

साम्प्रदायिकता, जातिवाद और भ्रष्टाचार हैं लोकतंत्र के सबसे बड़े दुश्मन असगर अली इंजीनियर

20 अप्रैल को पीपुल्स फोरम के तत्वावधान में निपाल लाज के सभागार में साम्प्रदायिकता की राजनीति और लोकतंत्र पर असगर अली इंजीनियर का व्याख्यान हुआ। प्रस्तुत है उसकी एक रिपोर्ट


गोरखपुर। साम्प्रदायिकता, जातिवाद और भ्रष्टाचार लोकतंत्र के तीन सबसे बड़े दुश्मन हैं। इनके खिलाफ लडाई एक बार में खत्म नहीं होने वाली है। इनके खिलाफ निरन्तर संघर्ष जरूरी है क्योंकि साम्प्रदायिक, जातिवादी और भ्रष्ट ताकते लगातार अपना काम करती रहती हैं। हमें इनके खिलाफ संघर्ष करते हुए डेमोक्रेसी, डायवर्सिटी और डायलाग के लिए काम करना होगा।
यह बातें प्रख्यात इस्लामिक विद्वान एवं लेखक असगर अली इंजीनियर ने बुधवार को सिविल लाइंस स्थित लाज निपाल के सभागार में पीपुल्स फोरम के तत्वावधान में साम्प्रदायिकता की राजनीति और लोकतंत्र विषय पर अपने व्याख्यान में कही। उन्होंने कहा कि धर्म कभी एक दूसरे को नहीं लड़ता। निहित स्वार्थों के को पूरा करने के लिए धर्म को लड़ाई का हथियार बनाया जाता है। सच्चे लोकतंत्र में स्वार्थों का संघर्ष कम होता है जबकि हमारे देश के लोकतंत्र में यह बढता है। उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिकता तो दिखती है लेकिन जातिवाद अदृश्य रहकर काम करता है। हमें साम्प्रदायिकता के साथ-साथ जातिवाद के खिलाफ भी जबर्दस्त मुहिम चलानी चाहिए। उन्होंने साम्प्रदायिकता के लिए राजनेताओं के बजाय सिविल सोसाइटी को ज्यादा जिम्मेदार ठहराते हुए कहा सिविल सोसाइटी को आलोचनात्मक नजरिए से देखना चाहिए। हम जातिवाद से बाहर नहीं निकलता चाहते। शिक्षा के पाठ्यक्रम पूर्वाग्रहों से भरे हुए हैं। हम भ्रष्टाचार के खिलाफ बात करते हैं लेकिन सुविधाओं के लिए रिश्वत देने से बाज नहीं आते। हमारे समाज में जेंडर भेदभाव बहुत है। राजनीतिज्ञ हमारी इन कमजोरियों का फायदा उठाते हैं।
श्री इंजीनियर ने कहा कि लोकतांत्रिक समाज को हर तरह के भेदभाव से मुक्त होना चाहिए। जाति, धर्म, लिंग, भाषा की बुनियाद पर भेदभाव वाले समाज में सच्चा लोकतंत्र नहीं आ सकता है। अमरीका, फ्रांस, स्विटजरलैण्ड में भी कई तरह के भेदभाव हैं। इसलिए मै अमरीकी समाज को सही मायने में डेमोक्रेटिक नहीं मानता।
50 से अधिक पुस्तक लिख चुके इंजीनियर ने मल्टीपल आइडेन्टिटी को लोकतत्र की मजबूती के लिए आवश्यक बताते हुए कहा कि 1857 तक हमारी पहचान धार्मिक नहीं थी। अंग्रेजो ने अपनी राजनीति के तहत हमारी पहचान को धार्मिक बनाया। उन्होंने शिक्षा व्यवस्था को पूरी तौर पर सुधारने पर जोर देते हुए कहा कि हमारी शिक्षा व्यवस्था मानने वाला दिमाग पैदा कर रहा है


जबकि हमें सोचने वाला दिमाग चाहिए। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था सिर्फ नकारात्मक चीजे दे रहा है। वह हमको आजादी का जज्बा, सोचने की योग्यता और वाद-विवाद करने की क्षमता नहीं दे पा रही है। भ्रष्टाचार और उसके खिलाफ अन्ना हजारे के ताजा आन्दोलन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए और न ही इसे किसी एक राजनीतिक दल के खिलाफ केन्द्रित करना चाहिए। उन्होंने अपनी बातचीत में मीडिया के अन्दर भ्रष्टाचार व पेड न्यूज की भी चर्चा की और कहा कि हम किसी समाज में भ्रष्टाचार को खत्म नहीं कर सकते लेकिन कम कर सकते हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोगों में उद्देलन है।
इसके पूर्व पीपुल्स फोरम के संयोजक प्रो रामकृष्ण मणि त्रिपाठी ने विषय की प्रस्तावना रखते हुए कहा कि फ्रीडम आफ थाट को वोट बैंक की राजनीति से बचाना होगा। सेकुलर ताकतों को हमेशा सिद्धान्तों की बात करनी चाहिए और किसी भी कीमत पर इससे समझौता नहीं करना चाहिए। उन्होंने इतिहास की बातों में फंसने के बजाय आगेे के समाज के लिए चिंतन व काम करने पर जोर दिया। कार्यक्रम का समाहार करते हुए वरिष्ठ कथाकार प्रो रामदेव शुक्ल ने कहा कि हम सभी से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह सतत जागरूक रहे। ऐसे में बु़िद्धजीवी समाज व मिडिल क्लास से अपेक्षा है कि वह अपने आचरण से लोगों के लिए आदर्श सामने रखे। सिर्फ बातों से समाज नहीं बदलेगा बल्कि हमें इसके लिए प्रयास भी करना होगा। धन्यवाद ज्ञापन पत्रकार अशोक चैधरी ने और कार्यक्रम का संचालन मनोज कुमार सिंह ने किया।

साम्प्रदायिकता पर अन्ना हजारे की समझ अपर्याप्त-राम पुनियानी

आईआईटी मुम्बई में बायोमेडिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर रहे राम पुनियानी वर्ष 1992 से बहुलवादी धर्मनिरपेक्ष जनवादी मूल्यों के प्रचार-प्रसार में सक्रिय हैं। धार्मिक रूढिवाद, साम्प्रदायिकता और आतंकवाद पर उनके व्याख्यान बहुत पंसद किए जाते हैं। आधा दर्जन पुस्तके लिख चुके राम पुनियानी साम्प्रदायिकता पर एक कार्यशाला के सिलसिले में 12 अप्रैल को गोरखपुर में थे। इस मौके पर गोरखपुर न्यूज लाइन ने उनसे बातचीत की। बातचीत के प्रमुख अंश ।

प्रश्न-गुजरात के बाद आप देश में साम्प्रदायिकता की स्थिति को किस तौर पर देखते हैं।
राम पुनियानी- यह लगता है कि चुनावी तौर पर साम्प्रदायिक राजनीति कुछ कमजोर हुई है लेकिन कुछ स्थानों पर यह सत्ताधीन हुई है। साम्प्रदायिकता केवल चुनावी राजनीति में नहीं है बल्कि यह संस्थाओं में अपनी जड़ जमा चुकी है। पुलिस, ब्यूरोक्रेसी आदि में इसकी उपस्थिति बहुत खतरनाक है। इसलिए उपरी तौर पर इस समय साम्प्रदायिकता भले कमजोर दिख रही है लेकिन इसका खतरा कहीं से कम नहीं हुआ है। आतंकवाद के मामलों की जांच प्रक्रिया में हम इसको देख सकते हैं। साम्प्रदायिकता हमारी मानसिकता में पैठ गई है जिसका फायदा उठाने में आरएसएस कभी भी सक्षम है।
प्रश्न- और साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष ?
राम पुनियानी- साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष पहले से ज्यादा संगठनात्मक हुआ है। पहले गिने-चुने संगठन ही इसके खिलाफ संघर्ष कर रहे थे लेकिन छह-सात वर्ष में साम्प्रदायिकता से संघर्ष करने वाले संगठनों में इजाफा हुआ है। कार्यक्रम भी बढ़ रहे हैं लेकिन राजनीतिक दलों पर साम्प्रदायिकता विरोधी आंदोलन का कोई खास प्रभाव नहीं हुआ है। बीजेपी का साम्प्रदायिकता का खुला एजेंडा है लेकिन कांग्रेस नियमित रूप से साम्प्रदायिकता का फायदा लेने की कोशिश करती रहती है। वह अवसरवादी साम्प्रदायिक है। वाम दल साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष में इमानदार हैं लेकिन वह कमजोर होते जा रहे हैं। साम्प्रदायिकता का कारगर विरोध एक बड़ा सामाजिक आंदोलन ही कर सकता है। मै समझता हूं कि सभी आंदोलन साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष को अपने आंदोलन का अनिवार्य हिस्सा माने और साम्प्रदायिकता के खिलाफ चल रहे आंदोलन दूसरे आंदोलनों से एकता बनाएं। तब एक मुकम्मल लड़ाई बनेगी।
प्रश्न-अन्ना हजारे द्वारा मोदी सरकार के बारे में दिए गए बयान के बारे में आपकी क्या राय है।
राम पुनियानी-अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कितनी भी ताकत हो लेकिन मेरा मानना है कि अन्ना हजारे जी की साम्प्रदायिकता के बारे में समझदारी अपर्याप्त है। उनके द्वारा गुजरात के बारे में दिए गए बयान से मै असहमत हूं और मै इसे दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं। गुजरात में आज भी मुसलमानों, दलितों और महिलाओं की हालत बहुत खराब है। आखिर टाटा की हर नैनो कार पर 60 हजार की सब्सीडी भ्रष्टाचार का सवाल है कि नहीं ? क्या अन्ना जी इन तत्यों से अनजान है या जानना नहीं चाहते ?
प्रश्न- भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का आप क्या भविष्य देखते हैं ?
राम पुनियानी- पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का फायदा साम्प्रदायिक ताकतें उठा लेंगी। पहले भी वह ऐसा कर चुकी हैं। जेपी आंदोलन और वीपी सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान मेें साम्प्रदायिक ताकतों ने घुसपैठ बनाई और इस अवसर का फायदा अपने को मजबूत बनाने में किया। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई होनी चाहिए और पूरी ताकत से होनी चाहिए लेकिन साथ ही हमें इसमें साम्प्रदायिक ताकतों के घुसपैठ के प्रति सावधान रहना चाहिए। इस लड़ाई में प्रगतिशील ताकतों की सक्रियता से मुझे भरोसा है कि इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं होगी। साथ ही मै इस आंदोलन की दो कमजोरियों को चिन्हित करना चाहूंगा। पहली यह कि इसमें सिर्फ राजनीतिक दलों और राजनेताओं को निशाना बनाया जा रहा है। कार्पोरेट भ्रष्टाचार और कार्पोरेट लूट के बारे में बात नहीं हो रही है जबकि यह सबसे अहम सवाल है। दूसरी यह कि इस आंदोलन में चुने हुए प्रतिनिधियों को किनारे करने की कोशिश की जा रही है। लोकतंत्र में यह कैसे संभव है ? भ्रष्टाचार का सवाल सिस्टम से जुड़ा सवाल है और सिस्टम को बदले बिना इसे खत्म नहीं किया जा सकता।