मंगलवार, 31 अगस्त 2010

साइलेंस

मई 2010 के पहले सप्ताह में हम गोरखपुर और आसपास के कस्बों में वीडियो कैमरा टीम के साथ घूम रहे थे। मकसद था इंसेफेलाइटिस के मरीजों और अपने परिवारों की कहानी को दर्ज करना। हम जानना चाहते थे कि 1978 से इंसेफेलाइटिस से हजारों बच्चों के मर जाने के बावजूद सरकार चुप क्यों है, इसे राष्टीय आपदा मानकर इसके उन्मूलन का प्रयास क्यों नहीं हो रहा है और क्या इस कारण इस पर चारो ओर चुप्पी है कि इस बीमारी से गरीबों के बच्चे मर रहे हैं?
हमारी टीम भी इन्हीं सब सवालों की खोज में निकली थी।
होलिया में विकलांगतता का अभिशाप
हमारी टैक्सी कैमरा टाइपौड और साउंड उपकरणों से लदी गोरखपुर से 25 किलोमीटर दूर पिपराइच की तरफ जा रही थी। हमें पिपराइच कस्बे से सटे दलितों की अधिसंख्या वाले होलिया गांव पहुंचना था। यह गांव कुशीनगर जिले में आता है। गांव पहुंचते ही इंसेफेलाइटिस के उन्मूलन के लिए कार्य कर रहे चिकित्सक डा आरएन सिंह की संस्था द्वारा लगाया गया एक बड़ा बोर्ड नजर आता है। कैमरामैन के मुफीद फ्रेम के लिए यह बोर्ड बहुत काम का था। कैमरामैन ने गांव को दर्शाने के लिए बोर्ड के साथ धीमा पैन किया। होलिया गांव हमारे मैग्नेटिक टेप में दर्ज हो गया। डा आरएन सिंह के सहयोगी डा लाल बहादुर सिंह हमें बताते हैं कि इस गांव में वे लोग इंसेफेलाइटिस से बचाव के लिए क्या-क्या कर रहे हैं। स्कूल में प्रार्थना के बाद इस रोग से बचाव के बारे में बच्चों को जानकारी दिए जाने की बात सुनकर हम सब कुछ अच्छे दृश्य और साउंड एम्बीयन्स मिलने की उम्मीद में उत्साहित हो गए। हम तुरन्त स्कूल पहुच गए। स्कूल की प्रार्थना खत्म हो चली थी और बच्चे अपनी-अपनी कक्षाओं में व्यस्त थे लेकिन फिल्म टोली के लिए हर चरित्र का रीटेक संभव था। तुरन्त ही कक्षाओं को रोककर फिर से प्रार्थना की रीटेक की तैयारी शुरू की गई।
प्रार्थना के गीतों और राष्टगान की औचारिकता के बाद मास्टर जी ने स्वच्छता की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। उन्होंने यह भी कहा कि बच्चों को अपने बड़े-बूढों को शौच खुले में नहीं बल्कि शौचालय में करना चाहिए के बारे में समझाना चाहिए। मास्टर जी गांव के ही थे और उन्हें पता था कि गांव में अधिकतर लोगों के घर में शौचालय नहीं है फिर भी उन्होंने शौचालयों में शौच जाने की बात कही और बच्चों ने उसे दुहरा भी दिया। हमारी फिल्म के दृश्य में होलिया के मास्टर साहब के यह पूछने पर कि किसे-किसे टीका लगा है सभी बच्चे हाथ उपर खड़ा कर देते हैं लेकिन सच यह है कि बच्चों के एक बार ही टीका लगा है और सम्पूर्ण प्रतिरक्षण के लिए इसका दो बार लगना जरूरी है।
स्कूल से हम एक बार फिर गांव लौटते हैं। हम रामसमुझ सिंह के घर पहुंचते हैं। रामसुझ अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी पत्नी कुसुम देवी और बेटा मनोज घर चलाते हैं। 2005 के वक्त रामसमुझ की बेटी संजू 13 वर्ष की थी। बीमारी ने संजू की आवाज छीन ली और दिमाग भी। कैमरामैन ने फ्रेम बनाया। फ्रेम में सबसे बाएं बैठी संजू पूरी बातचीत में बुत बनी रही। यह पूछने पर कि आगे चलकर क्या बनना चाहती है तो उसकी खींचकर डा --क् ---ट---र कहना बीमारी के विद्रूप चेहरे को बखूबी समझा रहा था। विद्रूपताएं सिर्फ संजू की विकलांगता से ही नहीं उपजी थीं। थोथी संवेदनओं ने भी कुछ कम इजाफा नहीं किया था। पड़ोस के किसी सम्पन्न व्यक्ति ने संजू की पढ़ाई लिखाई और शादी व्याह का जिम्मा भी लिया था। इस बात को कई लोगों ने कैमरे पर दर्ज हो जाने की नीयत से सुनाया। किसी विकलांग बच्चे पर इतना कुछ करने की मंशा सिर्फ ढोंग नहीं तो क्या था।
हम पासवान टोले में गीता से मिलते है। गीता और ओम प्रकाश का बेटा शैलेष 2005 मेे बीमारी के समय चार वर्ष का था। इस बीमारी ने उसकी आवाज को छीन लिया है और हाथ-पैर भी साामन्य नहीं रह पाए हैं। नाम पूछने पर बहुत मुश्किल से वह समय लगाकर खींचकर शै.......ले .......ष बोलता है। गनीमत है कि उसका दिमाग एकदम दुरूस्त है। जब हम पासवान टोला पहुंचे तब शैलेष बारी (बागीचे) में खेलने गया था। शैलेष की मां गीता पासवान घर चलाती हैं और उनके पति होलिया से 25 किलोमीटर दूर गोरखपुर में चाय का ठेला लगाकर घर का खर्च जुगाड़ता है। पासवान टोले की सभी परिवारों के पास जमीन बीघे में न होकर कट्ठे में है। कैमरा मैन ने शैलेष के आने के इंतजार में माहौल दर्ज करने के लिए महिलाओं के समूह को अपने फ्रेम में समेटना शुरू किया। कभी होलिया गांव से बमुश्किल 45 किमी दूरी पर सरदार नगर में मशहूर चित्रकार अमृता शेरगिल तीन औरतों को अपने कैनवास में उतार रही थीं। होलिया के पासवान टोले की यह औरतें अमृता शेरगिल की तीन औरतों जैसी ही मजबूत दिख रही थीं। किसी के पति सूरत तो किसी के पति मुम्बई कमाने गए हैं। जिस घर के दालान में बैठकर हम उनसे बातचीत कर रहे थे वह पुरूषोें की परछाई से मुक्त था। बातचीत शैलेष की बीमारी और उससे लड़ने के किस्सों तक ही महदूद थीं। जो इस दौरान हमारे मैग्नेटिक टेप में दर्ज न हो सका वह था पासवान टोले की औरतों का अकेलापन। शैलेष के आने के बाद माहौल थोड़ा अगल हुआ। शैलेष की विकलांगता उसकी आंखों से दिखती शरारत पर भारी नहीं पड़ रही थी। हमारे अनुरोध पर शैलेष एक बार फिर बागीचे में अपने दोस्तों के साथ खेलने चला गया। कबड्डी की धमाचैकड़ी में शैलेष को छोड़कर हम होलिया गांव से बाहर निकल रहे थे।

सेमरी महेशपुर-जहां पांच घरों में छह मौते हुईं
गोरखपुर से कुशीरनगर राजमार्ग पर सुकरौली एक उंघता हुआ कस्बा है जिसकी नींद सड़क को फोर लेन करने के लिए हो रही तोड़फोड़ ने तोड़ दी है। सुकरौली से एक रास्ता सेमरी महेशपुर जाता हैै। सेमरी में हमे इंसेफेलाइटिस से हुई मौतों वाले घरों में जाना था। पहला घर जवाहिर ओर दुर्गावती का था। उनका दस बरस का बेटा तारकेश्वर 2005 में इंसेफेलाइटिस की भेंट चढ़ गया। तारकेश्वर के जाने से दुर्गावती की दुनिया ही उजड़ गई। मायूसी से उसे याद करते हुए कहती है-अभी होता तो गबरू जवान होता। कैमरामैन ने एडिटिंग की सुविधा के लिए दुर्गावती को दुबारा से उनकी चाय की दुकान पर बैठा लिया है। जब अंगीठी जलाने का उपक्रम चल रहा है और दुर्गावती के प्रोफाइल वाले शाट दर्ज किए जा रहे हैं। फ्रेम में दुकान की अंगीठी में लगी आग से मनमाफिक वार्म टोन मिल रही थी। दुर्गावती के दिल में लगी आग को बुझाने का तरीका हमारे कैमरे में नहीं था। दुर्गावती के घर के पास ही मुश्किल से 50 मीटर की दूरी पर तारकेश्वर का दोस्त जितेन्दर रहता था। 13 बरस का जितेन्दर, उदयभान और सावि़त्री की आंखों का तारा था। 2005 की बरसात में उसे बुखार आया और फिर दो-तीन दिन बाद उसने असर दिखाना शुरू किया। जैसे-तैसे यादव दम्पति उसे सुकरौली ले गए लेकिन तब तक सब कुछ पलट गया था। 2005 की महामारी के भेंट जितेन्दर भी चढ़ा। दुर्गावती के घर से निकलते ही हमें याद आया कि तारकेश्वर की कोई तस्वीर हमारी बातचीत के दौरान नहीं उतारी गई। इसलिए जितेन्दर के घर बातचीत पूरी होते-होते हमने उसकी तस्वीर मांग ली। तस्वीर मांगना जैसे पुराने जख्मों को फिर से हरा करना था। पहली बार हमें पता चला कि मृत बच्चे की तस्वीर रखने का चलन ग्रामीणों में नहीं हैै। उनका कहना था कि इससे पुरानी यादें धूमिल पड़ती हैं। इसलिए बच्चो की स्मृति पूरी तरह से नष्ट करना ही अपने दुख को कम करने का एक आसान उपाय है। लालचियों की तरह हम तस्वीर की जुगत में लगे रहे। गुमसुम सावि़त्री ने मन मारकर कहीं कोने में दुबकी अपने दुलारे जितेन्दर की एक पासपोर्ट साइल की तस्वीर हमें दे दी। एडिटिंग केे समय किसी भावनात्मक उभार की उम्मीद के साथ वह तस्वीर मेरे पर्स की एक जरूरी हिस्सा बन गई।
गुड्ू शर्मा तीसेक की उम्र के युवा हैं और मजदूरी कर अपना परिवार चलाते हैं। बिना पलस्तर की ंघर की दीवारें उनकी आंशिक बेरोजगारी को सहज ही व्यक्त कर रही थीं। वर्ष 2005 में उनकी और पत्नी सुनीता की गोद में तीन साल का खूबसूरत बेटा सत्यम था। नउकी बीमारी ने यहां भी कहर बरपाया और सत्यम बचाया न जा सका। हमारे अनुरोध करने पर सत्यम का एक ग्रुप फोटो मिल गया जिसमें सत्यम अपने चचेरे भाई बहनों के साथ हाथ में गुलदस्ता लिए हुए है। घने काले घंुघराले वालों बाला सत्यम ऐसा लग रहा था कि मानो तुरन्त ही तस्वीर से बाहर निकलकर हमारे साथ खेलने लगेगा।
मा-बाप के हाथ से छिटककर तस्वीर अब उनके दूसरे बेटे सियम के हाथ में आ गई। अब सियम फिर से हमें तस्वीर में दिख रहे भाई-बहनों के बारे में बता रहा था। फ्रेम से परे सत्यम की मां सुनीता किसी तरह अपने आंसुओं को रोके थी। एकदम अंधेरे में सत्यम की बुआ अपने बिछुड़ गए भतीजे की याद में खो गई थी। मौत की याद में सब कुछ शांत था। हमारा कैमरा अपने पैन से सब कुछ को धीमे धीमे मैग्नेटिक टेप में दर्ज कर रहा था। गुड्डू-सुनीता के पांच बरस के दूसरे बेटे सियम को भी अपने गुजर गए भाई की तरह टीका नहीं लगा है। मै अचानक इस आशंका से घिर गया कि क्या इस परिवार का दूसरा गुलदस्ता भी टूट जाएगा ? यह पूछने का साहस मेरे पास नहीं था क्यांेकि फिल्म टीम टीका न लगने के कारण हुई मौतों की यादों को बखूबी दर्ज कर सकती हैं लेकिन हमारे बूम राड से कोई टीका नहीं लगाया जा सकता।
सियम के काले घंुघराले बालों और शोख चेहरे की याद के साथ हम रामजी गुप्ता के आम के पेड़ के नीचे जमा हो रहे थे। इसी पेड़ के नीचे से पांच सितम्बर 2005 को उनकी प्यारी पोती ज्योति की आखिरी यात्रा निकली। तख्ते पर ज्योति की दादी रामरती और मां बादामी बैठे थे हमारे सवालों के जवाब के लिए। मां का आडियो लेवल काफी नीचा था। जैसे ही ज्योति के बारे में रामरती ने बताना शुरू किया बादामी ने हस्तक्षेप कर अपनी बेटी की यादों को रखना शुरू कर दिया। बेटी की याद ने उसके आडियो लेवल को दुरूस्त कर दिया था। वही सब कुछ ज्योति के साथ हुआ जो दूसरे बच्चों के साथ हुआ। एक दिन अच्छी-भली स्कूल से लौटी ज्योति ने पेट दर्द की शिकायत की। फिर बुखार और दूसरे लक्षण। गोरखपुर के महंगे प्राइवेट नर्सिंग होम में इलाज कराने के बाद जो हाथ में आया वह था डेथ सर्टिफिकेट। हम पता नहीं क्यो इसी डेथ सर्टिफिकेट को तस्वीरें भी विभिन्न कोणों से कैद करते रहे। शायद कहानी को और ज्यादा प्रमाणिक बनाने के लिए या यूं ही सब कुछ दर्ज कर लेने की नीयत से। सभी लोगों की तरह यहां के लोग भी अब किसी पर दोष मढ़ने के लिए तैयार नहीं थे। जवाब वही कि जब जान ही नहीं बची तो हाय तौबा करने से क्या। बातों-बातों में पता चला कि ज्योति की स्मृति शादी के एक वीडियो कैसेट में मौजूद है। जल्दी ही किसी को भेजा गया उसक वीडियो कैसेट की खोज में। इस बीच समय काटने की गरज से गुप्ता परिवार ने दही चूड़ा के नाश्ते का अनुरोध किया। सुबह से धूप में घूम रहा कैमरा टीम ने सहज ही इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। रामजी गुप्ता के दालान में कैमरा टीम दही चूड़ा जीम रही थी। दही गांव के शुद्ध घी को औंटाकर जमाया गया था और चूड़ा स्थानीय चावल से ही तैयार किया गया था। दही चूड़ा के बड़े ग्रास के साथ ज्योति की स्मृति हम सबको मृत्यु भोज का आस्वाद करा रही थी और शायदी इसी वजह से खूब औंटाए गए दूध का दही मीठा न होकर कसैला प्रतीत हो रहा था।
इस कसैले मृत्यु भोज को अभी और कसीला होना था भल्लन के घर पर। सेमरी महेशपुर से एक किलोमीटर दूर पश्चिम पर बरवा टोला है। भल्लन जाति से डोम हैं। 45 वर्ष के भल्लन और 40 की बरफी आठ बच्चों के जनक हैं। 2005 से पहले तक भल्लन सुअर भी पालते थे। इसी से उनका खर्च चलता था। 2005 के जापानी बुखार में सुअरबाड़े को लील गया। सुअरबाड़े का लील लिया जाना तो भल्लन और बरफी किसी तरह बर्दाश्त कर गए लेकिन छह महीने के छोटू और तीन बरस की सोनी की याद को भुलाना बहुत मुश्किल था। पतली नीली प्लास्टिक शीट से बने टैन्ट में किसी तरह का गुजर-बसर कर रहे भल्लन परिवार के लिए अपने बच्चों को नउकी बीमारी से बचा पाना बहुत मुश्किल था। वे भी दूसरे लोगों की नजदीकी अस्पताल की ओर दौड लेकिन सबसे छोटे छोटू और सात भाइयांे की चम्पा ’सोनी’
को वे न बचा सके। बिना छत वाले घर की जिस चैखट पर बैठकर वे टेलीविजन इन्टरव्यू दे रहे थे, जिसमें उनका एक लड़का पूरी तरह से नेमा दिख रहा है, देखकर कोई पूछ ही सकता है कि रत्नगर्भा बरफी अपने बचे हुए छह रत्नों को कैसे बचा पाएगी ? भल्लन परिवार ने हमें सरकारी नुमाइन्दा समझ लिया था। वे बार-बच्चों की मृत्यु का मुआवजा न मिलने की शिकायत करते रहे। हमने भल्लन और बरफी को झूठा दिलासा देकर वहां से विदा ली। वे शायद यह समझ रहे थे कि हमारी रिकार्डिंग से उन्हे मुआवजा मिल जाएगा। जबकि सचाई यह थी कि पैसे की कमी के कारण उनके बच्चे सरकारी अस्पताल की चैखट तक पहुंचकर दर्ज न हुए थे इसलिए मर कर भी वे वे सरकारी दस्तावेजों में मरे नहीं थे। हमारी रिकार्डिंग से क्या किसी परिवार का भला होगा ? क्या सरकार ऐसी चुप्प और गमगीन बातचीत से उद्वेलित हो पाएगी जिसमें मौत का हाहाकार नहीं बल्कि सिर्फ यादें और सूनापन हैं ? पता नही। कैमरे के पैन और उसमे सब कुछ समेट लेने का कौशल, बूम राड और गन माइक का सटीकपन और दुखद स्मृतियों की पुनरावृत्तियां कुछ और बदल सकेंगी तो निश्चय ही बरफी जैसे तमाम रत्नगर्भाओं के रत्न पूर्वांचल के काम आ सकेंगे।
यह सब कुछ सदिच्छा ही है और यह भी कि यह पूरी हो चाहे कुछ कदम ही सही।

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