मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

gorakh ke ganw men jan sanskriti manch ka sammelan








गोरख स्मृति संकल्प और जसम, उत्तर प्रदेश का पांचवा राज्य सम्मेलन 29-30 जनवरी 2011 को कवि गोरख पांडेय के गांव में संपन्न हुआ। गोरख के गुजरने के 21 साल बाद जब पिछले बरस लोग देवरिया जनपद के इस ‘पंडित का मुंडेरा’ गांव में जुटे थे, तब करीब 65 लोगों ने गोरख से जुड़ी अपनी यादों को साझा किया था। इस बार भी वे उत्प्रेरक यादें थीं। उनके सहपाठी अमरनाथ द्विवेदी ने संस्कृत विश्वविद्यालय में छात्रसंघ के अध्यक्ष और बीचयू में एक आंदोलनकारी छात्र के बतौर उनकी भूमिका को याद किया। उन्होंने बताया कि गोरख अंग्रेजी के वर्चस्व के विरोधी थे, लेकिन हिंदी के कट्टरतावाद और शुद्धतावाद के पक्षधर नहीं थे। बीचयू में संघी कुलपति के खिलाफ उन्होंने छात्रों के आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसके कारण उन्हें विश्वविद्यालय प्रशासन की यातना भी झेलनी पड़ी। साम्राज्यवादी-सामंती शोषण के खिलाफ संघर्ष के लिए उन्होंने नक्सलवादी आंदोलन का रास्ता चुना और उसके पक्ष में लिखा। जहां भी जिस परिवार के संपर्क में वे रहे उसे उस आंदोलन से जोड़ने की कोशिश की। भर्राई हुई आवाज में राजेेंद्र मिश्र ने उनकी अंतिम यात्रा में उमड़े छात्र-नौजवानों, रचनाकारों और बुद्धिजीवियों के जनसैलाब को फख्र से याद करते हुए कहा कि मजदूरों और गरीबों की तकलीफ से वे बहुत दुखी रहते थे। फसल कटाई के समय वे हमेशा उनसे कहते कि पहले वे अपनी जरूरत भर हिस्सा घर ले जाएं, उसके बाद ही खेत के मालिक को दें। पारसनाथ जी के अनुसार वे कहते थे कि अन्याय और शोषण के राज का तख्ता बदल देना है और सचमुच उनमें तख्ता बदल देने की ताकत थी। गोरख की बहन बादामी देवी ने बड़े प्यार से उन्हें याद किया। उन्हें सुनते हुए ऐसा लगा जैसे गोरख की बुआ भी वैसी ही रही होंगी, जिन पर उन्होंने अपनी एक मशहूर कविता लिखी थी।
जसम महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिस संगठन को गोरख ने बनाया था उसकी तरफ से उनकी कविता और विचार की दुनिया को याद करते हुए खुद को नई उर्जा से लैस करने हमलोग उनके गांव आए हैं। गोरख ने मेहनतकश जनता के संघर्ष और उनकी संस्कृति को उन्हीं की बोली और धुनों में पिरोकर वापस उन तक पहुंचाया था। उन्होंने सत्ता की संस्कृति के प्रतिपक्ष में जनसंस्कृति को खड़ा किया था, आज उसे ताकतवर बनाना ही सांस्कृतिक आंदोलन का प्रमुख कार्यभार है। इसके बाद ‘जनभाषा और जनसंस्कृति की चुनौतियां’ विषय पर जो संगोष्ठी हुई वह भी इसी फिक्र से बावस्ता थी। आलोचक गोपाल प्रधान दो टूक तरीके से कहा कि हर चीज की तरह संस्कृति का निर्माण भी मेहनतकश जनता करती है, लेकिन बाद में सत्ता उस पर कब्जा करने की कोशिश करती है। भोजपुरी और अन्य जनभाषाओं का बाजारू इस्तेमाल इसलिए संभव हुआ है कि किसान आंदोलन कमजोर हुआ है। समकालीन भोजपुरी साहित्य के संपादक अरुणेश नीरन ने कहा कि जन और अभिजन के बीच हमेशा संघर्ष होता है, जन के पास एक भाषा होती है जिसकी शक्ति को अभिजन कभी स्वीकार नहीं करता, क्योंकि उसे स्वीकार करने का मतलब है उस जन की शक्ति को भी स्वीकार करना। कवि प्रकाश उदय का मानना था कि सत्ता की संस्कृति के विपरीत जनता की संस्कृति हमेशा जनभाषा में ही अभिव्यक्त होगी। कवि बलभद्र की मुख्य चिंता भोजपुरी की रचनाशीलता को रेखांकित किए जाने और भोजपुरी पर पड़ते बाजारवादी प्रभाव को लेकर थी। प्रो. राजेंद्र कुमार ने कहा कि जीवित संस्कृतियां सिर्फ यह सवाल नहीं करतीं कि हम कहां थे, बल्कि वे सवाल उठाती हैं कि हम कहां हैं। आज अर्जन की होड़ है, सर्जन के लिए स्पेस कम होता जा रहा है। सत्ता की संस्कृति हर चीज की अपनी जरूरत और हितों के अनुसार अनुकूलित करती है, जबकि संस्कृति की सत्ता जनता को मुक्त करना चाहती है। प्रेमशीला शुक्ल ने जनभाषा के जन से कटने पर फिक्र जाहिर की। विद्रोही जी ने कहा कि हिंदी और उससे जुड़ी जनभाषाओं के बीच कोई टकराव नहीं है, बल्कि दोनों का विकास हो रहा है। हमें गौर इस बात पर करना चाहिए कि उनमें कहा क्या जा रहा है। संगोष्ठी के अध्यक्ष और सांस्कृतिक-राजनैतिक आंदोलन में गोरख के अभिन्न साथी रामजी राय ने कहा कि गोरख उन्हें हमेशा जीवित लगते हैं, वे स्मृति नहीं हैं उनके लिए। जनभाषा में लिखना एक सचेतन चुनाव था। उन्होंने न केवल जनता की भाषा और धुनों को क्रांतिकारी राजनीति की उर्जा से लैस कर उन तक पहुंचाया, बल्कि खड़ी बोली की कविताओं को भी लोकप्रचलित धुनों में ढाला, ‘पैसे का गीत’ इसका उदाहरण है। अपने पूर्ववर्ती कवियों और शायरों की पंक्तियों को भी गोरख ने बदले हुए समकालीन वैचारिक अर्थसंदर्भों के साथ पेश किया। रामजी राय ने कहा कि जनभाषाएं हिंदी की ताकत हैं और बकौल त्रिलोचन हिंदी की कविता उनकी कविता है जिनकी सांसों को आराम न था। सत्ता के पाखंड और झूठ का निर्भीकता के साथ पर्दाफाश करने के कारण ही गोरख की कविता जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हुई। ‘समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई’ संविधान में समाजवाद का शब्द जोड़कर जनता को भ्रमित करने की शासकवर्गीय चालाकी का ही तो पर्दाफाश करती है जिसकी लोकप्रियता ने भाषाओं की सीमाओं को भी तोड़ दिया था, कई भाषाओं में इस गीत का अनुवाद हुआ। रामजी राय ने गोरख की कविता ‘बुआ के नाम’ का जिक्र करते हुए कहा कि मां पर तो हिंदी में बहुत-सी कविताएं लिखी गई हैं, पर यह कविता इस मायने में उनसे भिन्न है कि इसमें बुआ को मां से भी बड़ी कहा गया है। संगोष्ठी का संचालन आलोचक आशुतोष कुमार ने किया।
सांस्कृतिक सत्र में हिरावल (बिहार) के संतोष झा, समता राय, डी.पी. सोनी, राजन और रूनझुन तथा स्थानीय गायन टीम के जितेंद्र प्रजापति और उनके साथियों ने गोरख के गीतों का गायन किया। संकल्प (बलिया) के आशीष त्रिवेदी, समीर खान, शैलेंद्र मिश्र, कृष्ण कुमार मिट्ठू, ओमप्रकाश और अतुल कुमार राय ने गोरख पांडेय, अदम गोंडवी, उदय प्रकाश, विमल कुमार और धर्मवीर भारती की कविताओं पर आधारित एक प्रभावशाली नाट्य प्रस्तुति की। शैलेन्द्र मिश्र ने भिखारी ठाकुर के मशहूर नाटक विदेशिया के गीत भी सुनाए, इस दौरान लोकधुनों का जादुई असर से लोग मंत्रमुग्ध हो गए। इस अवसर पर एक काव्यगोष्ठी भी हुई, जिसमें अष्टभुजा शुक्ल, कमल किशोर श्रमिक, रमाशंकर यादव विद्रोही, राजेंद्र कुमार, कौशल किशोर, रामजी राय, प्रभा दीक्षित, चंद्रेश्वर, भगवान स्वरूप कटियार, डाॅ. चतुरानन ओझा, सच्चिदानंद, मन्नू राय, सरोज कुमार पांडेय ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। संचालन सुधीर सुमन ने किया।
सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने मनोज सिंह को जसम, उ.प्र. के राज्य सचिव और प्रो. राजेद्र कुमार को अध्यक्ष के रूप में चुनाव किया। इसके अलावा बलराज पांडेय, चन्द्रेश्वर, भगवान स्वरूप कटियार, प्रभा दीक्षित व कौशल किशोर उपाध्यक्ष चुने गए। कार्यकारिणी में बलिया से रगकर्मी आशीष त्रिवेदी, गोरखपुर से अशोक चैधरी, देवरिया से उद्भव मिश्र, बरेली से शालिनी, इलाहाबाद से केके पांडेय व दुर्गा तथा लखनउ से राजेश कुमार व ब्रजनारायण गौड लिए गए हैं। साथ में 60 सदस्यीय राज्य परिषद का भी गठन किया गया। सांगठनिक सत्र में निवर्तमान महासचिव डा आशुतोष कुमार ने संगठन की गतिविधियों पर रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा कि जसम की उपलब्धि है कि वह नई सांस्कृतिक परिस्थिति के प्रति सचेत है और जनमुक्ति की सांस्कृतिक कार्रवाइयों को उसके अनुरूप विकसित करने की कोशिशों से मुब्तिला है। उन्होंने प्रदेश की राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक स्थितियों की विस्तृत चर्चा करते हुए कहा कि दमन और भ्रष्टाचार की राजनीति ने रूढिपरस्ती, अंध आस्था, मूर्तिपूजा और फूहडपन की संस्कृति को बढावा दिया है। ऐसे में जनसंस्कृति मंच ने संघर्ष की राजनीति के साथ खडे होते हुए प्रतिरोध की संस्कृति का नारा दिया है। इसी के तहत हमने साहित्य, संस्कृति, कला, नाट्य और सिनेमा से सम्बन्धित गतिविधियों में नए प्रयोग किए हैं और नए इलाके जोडे हैं। इस अवसर पर एक स्मारिका भी प्रकाशित की गई है, जिसमें गोरख की डायरी से प्राप्त कुछ अप्रकाशित कविताएं, जनसंस्कृति की अवधारणा पर उनका लेख और उनके जीवन और रचनाकर्म से संबंधित शमशेर बहादुर सिंह, महेश्वर और आशुतोष के लेख और साक्षात्कार हैं।
इस मौके पर जसम के राष्टीय महासचिव प्रणय कृष्ण, प्रदेश अध्यक्ष प्रो राजेन्द्र कुमार, रामजी राय, फिल्मकार अजय भारद्धाज, संजय जोशी, कथाकार सुभाष कुशवाहा, मदन मोहन, डा अनिल राय, डा मुन्ना तिवारी, बलभद्र मिश्र, अरूणेश नीरन, उद्भव मिश्र, ब्रजेन्द्र मिश्र, सरोज पांडेय, मीना राय, गोपाल प्रधान, प्रेमशंकर, बैजनाथ मिश्र, विकास नारायन, गोपाल राय, केके वत्स, वीएन गौड, गंगाजी, संतोष झा, डीपी सोनी, समता राय, राजन आदि के अलावा गोरख पांडेय के परिवार के बलराम पांडेय, राजेन्द्र मिश्र आदि उपस्थित थे।

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