रविवार, 3 जुलाई 2011

साहित्य ही मेरे लिए जीवन है-प्रो परमानंद

प्रो परमानंद को हिन्दी अकादमी दिल्ली का गद्य विधा सम्मान
गोरखपुर। सुप्रसिद्ध आलोचक एवं कवि प्रो परामानंद श्रीवास्तव को रविवार को प्रेस क्लब सभागार में आयोजित एक समारोह में हिन्दी अकादमी, नई दिल्ली का गद्य विधा सम्मान प्रदान किया गया। अकादमी के सचिव रवीन्द्र श्रीवास्तव परिचय दास ने प्रो परमानंद को सम्मान स्वरूप शाल, सम्मान पत्र, पचास हजार रूपए का चेक प्रदान किया। इस मौके प्रो परमानंद श्रीवास्तव ने कहा कि साहित्य ही मेरे लिए जीवन है और जीवन ही साहित्य है।
प्रो परमानंद को यह सम्मान लेने के लिए दिल्ली जाना था लेकिन वह वहां नहीं जा पाए थे। इस कारण हिन्दी अकादमी ने उन्हें गोरखरपुर आकर यह सम्मान देने का निर्णय लिया था। सम्मान देने के लिए अकादमी के सचिव रवीन्द्र श्रीवास्तव खुद यहां आए थे। सम्मान अर्पण समारोह का आयोजन गोरखपुर जर्नलिस्ट्स प्रेस क्लब और हिन्दी अकादमी ने संयुक्त रूप से किया था। सम्मान प्राप्त करने के बाद प्रो परमानंद ने कहा कि उन्हें अच्छा लग रहा है कि अपने शहर में अपने लोगों के बीच हिन्दी अकादमी का यह सम्मान ग्रहण कर रहे हैं। उन्होंने हिन्दी अकादमी के पुरस्कारों को गैरविवादास्पद बताया और अकादमी द्वारा अपने पुरस्कारों का दायरा राष्टीय स्तर तक बढाने पर प्रसन्नता व्यक्त की। पूर्व में व्यास सम्मान, भारत भारती सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके प्रो परमानंद ने एक लेखक के जीवन में यायावरी और औघड़पन को उर्जा का एक बड़ा स्रोत बताया। इसके पूर्व युवा आलोचक डा अनिल राय ने प्रो परामनंद को इतिहास के भीतर रहते हुए इतिहास के सवालों से टकराने वाले और नया इतिहास को सृजित करने वाला लेखक बताया। हिन्दी अकादमी के सचिव रवीन्द्र श्रीवास्तव ने अकादमी के कार्यों और योजनाओं की चर्चा करते हुए प्रो परामानंद की आलोचना ललित निबंध की तरह हैं और उन्होंने आलोचना को नई भाषा दी है। उनकी आलोचना सिर्फ कविता केन्द्रित नहीं है बल्कि कहानी, उपन्यास सहित कई विधाओं तक जाती है। श्री श्रीवास्तव ने प्रो परामनंद की डायरियों की चर्चा करते हुए हिन्दी अकादमी की ओर से उनके प्रकाशन की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने साहित्यकारांे का आह्वान किया कि वे हिन्दी अकादमी जैसी संस्थाओं को एक वृहततर प्लेटफार्म बनाने के प्रयासों में मदद करें। वरिष्ठ कथाकार प्रो रामदेव शुक्ल ने नए लेखकों, कवियों को प्रोत्साहित करने और उनकी रचनशीलता को रेखांकित करने में प्रो परमानंद के योगदान की चर्चा की। प्रो अनन्त मिश्र ने कहा कि प्रो परमानंद हमेशा नएपन के साथ रहे हैं। आज के समय की कहानी, कविता एक नए संस्करण के दौर में है और निश्चित रूप से प्रो परमानंद इसकी भी अगुवाई करेंगे। कथाकार मदन मोहन ने प्रो परमानंद को प्रेम और प्रतिरोध का लेखक बताया। अध्यक्षता कर रहे प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो हरिशंकर श्रीवास्तव ने प्रो परमानंद ने उपलब्धियां अपने पैर पर खड़े होकर प्राप्त किया। उन्होंने अपना कोई स्कूल नहीं बनाया। वह निरन्तर साहित्य साधना में संलग्न रहे। समारोह को कवि अष्टभुजा शुक्ल, प्रो रामदरश राय, रवीन्द्र श्रीवास्तव जुगानी भाई और दूरदर्शन के पूर्व निदेशक डा उदयभान मिश्र ने भी सम्बोधित किया। स्वागत वक्तव्य प्रेस क्लब के अध्यक्ष अशोक कुमार अज्ञात ने तथा धन्यवाद ज्ञापन डा दीपक प्रकाश त्यागी ने किया। संचालन प्रो परामनंद पर डाक्यूमेन्टी फिल्म बना चुके फिल्मकार प्रदीप सुविज्ञ ने किया। इस अवसर पर कवयित्री रंजना जायसवाल, अनिता अग्रवाल, प्रो अशोक कुमार सक्सेना, वरिष्ठ कवि देवेन्द्र आर्य, कथाकार लाल बहादुर, कमलेश गुप्ता, सिद्धार्थ शंकर, सत्यनारायण मिश्र, डा मुन्ना तिवारी, जगदीश श्रीवास्तव, उन्मेष सिन्हा, मनोज कुमार सिंह, आरिफ अजीज लेनिन, आसिफ सईद आदि उपस्थित थे।

शनिवार, 2 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार और कार्पोरेट लूट के खिलाफ लड़ाई देश को बचाने की लड़ाई -संदीप सिंह



भ्रष्टाचार और कार्पोरेट लूट के खिलाफ गोरखपुर में 26 जून को प्रेस क्लब सभागार में यूथ कन्वेंशन का आयोजन किया गया जिसको बतौर वक्ता जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष एवं आईसा के नेशनल प्रेसीडेन्ट संदीप सिंह ने सम्बोधित किया। पेश है सम्मेलन की संक्षिप्त रिपोर्ट-

गोरखपुर। देश के कार्पोरेट घरानों को आज 240 करोड़ रूपए प्रतिदिन विभिन्न प्रकार के टैक्स में छूट दी जा रही है और इतना ही धन प्रतिदिन देश के बाहर जा रहा है। वर्ष 1948 -2008 तक 462 बिलियन डालर धन देश के बाहर भेज दिया गया। यह सब कुछ कार्पोरेट घरानों के पक्ष में नीतियों को बनाकर और देश के संसाधनों की लूट की खुली छूट देकर किया गया है। इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई व्यक्ति केन्द्रित के बजाय नीतियों के जरिए देश को बेचने की कोशिश पर फोकस होनी चाहिए। हम इन्ही मुद्दों पर छात्रों-नौजवानों को गोलबंद कर व्यापक आंदोलन खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।
यह बातें आल इंडिया स्टूडेन्ट एसोसिएशन आइसा के राष्टीय अध्यक्ष एवं जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष संदीप सिंह ने सोमवार 27 जून को गोरखपुर प्रेस क्लब के सभागार में भ्रष्टाचार और कार्पोरेट लूट के खिलाफ युवा सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कही। यह आयोजन पीपुल्स फोरम और इंकलाबी नौजवान सभा ने संयुक्त रूप से किया था।उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार और कार्पोरेट लूट के खिलाफ भारतीय समाज में उद्धेलन व बेचैनी है जिसकी अभिव्यक्ति विभिन्न प्रकार के आंदोलनों में हो रही है। श्री सिंह ने कहा कि भ्रष्टाचार को व्यक्ति केन्द्रित या घोटाला केन्द्रित कर बहस हो रही है जिससे असल मुद्दा पीछे हो जा रहा है। असल मुद्दा यह है कि देश के संसाधनों को लूटा और बेचा जा रहा है और अबाध लूट को आसान बनाने के लिए कार्पोरेट घरानों के पक्ष में नीतियां व कानून बनाए जा रहे हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि विदेश संचार निगम की 1200 एकड़ जमीन और 1400 करोड़ की पूंजी को सिर्फ टाटा को सिर्फ 1439 करोड़ में बेच दिया गया। इसी तरह कर्नाटक में रेड्उी बंधुओं की लौह अयस्क वैध-अवैध खनन की खुली छूट दी गई है जिसके एवज में मामूली रायल्टी ली जा रही है। ऐसे मामले में लोकपाल या कोई सख्त कानून भी क्या कर सकता है। भ्रष्टाचार को जन्म देनी वाली नीतियों के बदले बगैर भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों पर ही भरोसा करना ऐसा ही है जैसे कि गंदगी स्रोत किए बिना घर की साफ सफाई करते रहना।
श्री सिंह ने कहा कि सरकारों ने एकतरफ कार्पोरेट घरानों को लूट की पूरी छूट दी तो दूसरी ओर शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबों-मजदूरों के हित में चल रही योजनाओं में धन की कटौती की। उन्होंने कहा कि हम भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई को नई आर्थिक नीतियों व निजीकरण के खिलाफ तक ले जाना चाहते हैं और इसी मकसद से देश भर में घूम-घूमकर छात्रों-नौजवानों को गोलबंद कर रहे हैं। स्टूडेन्ट यूथ एंगेस्ट करप्शन के तहत नौ अगस्त से जंतर-मंतर पर हजारों नौजवानों की जुटान कर हम सरकार को एक बड़ा धक्का मारेंगे। श्री सिंह ने लोकपाल के अन्तर्गत प्रधानमंत्री और न्यायधीशों को लाए जाने की वकालत करते हुए बुद्धिजीवियों से सत्ता के बहकावे में न आने की अपील की। उन्होंने जनआंदोलनों से संसद की सर्वोच्चता और लोकतंत्र के कमजोर होने के तर्क को बेतुका बताते हुए कहा कि खुद सरकार ने संविधान और संसद को किनारे कर जनविरोधी नीतियां बना रही है और लागू कर रही है।उन्होंने भ्रष्टाचार और कार्पोरेट लूट के खिलाफ आंदोलन को देश और उसकी सम्प्रभुता बचाने की लड़ाई बताते हुए कहा कि इस लड़ाई में हर देशभक्त को शरीक होना चाहिए।
सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन ने कहा कि परिवर्तन की लड़ाई को मुकम्मल ताकत देने के लिए सभी वर्गों को इससे जोड़ने की अपील की। सम्मेलन को शिवनंदन, चतुरानन ओझा और अशोक चैधरी ने भी सम्बोधित किया।संचालन पत्रकार मनोज कुमार सिंह ने और धन्यवाद ज्ञापन लखनउ विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता राकेश सिंह ने किया। सम्मेलन में वरिष्ठ कवि देवेन्द्र आर्य, टेड यूनियन नेता राकेश सिंह, नितेन अग्रवाल, भाकपा माले नेता राजेश साहनी, जितेन्द्र द्विवेदी, मारकण्डेय मणि, असीम सत्यदेव आदि उपस्थित थे।

मंगलवार, 7 जून 2011

डरी हुई सरकार का कायराना कारनामा

बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर दिल्ली में पुलिस कार्यवाही पर जसम का बयान

नई दिल्ली , ६ जून, २०११
४/५ जून की मध्यरात्री में यु.पी.ए. सरकार द्वारा योगगुरु रामदेव के आह्वान पर भ्रष्टाचार-विरोधी मुहीम में दूर-दराज़ से आए लोगों पर रात के अँधेरे में उन्हें सोते में औचक ही सरकारी दमन का शिकार बनाना एक डरी हुई सरकार का कायराना कारनामा है. इस घटना से सरकार ने यह सन्देश भी दिया है कि वह कारपोरेट हितों के खिलाफ असली या नकली किसी भी प्रतिरोध को झेल नहीं सकती. भ्रष्टाचार का सवाल सीधे -सीधे निजीकरण-उदारीकरण और खगोलीकरण की अमीरपरस्त-साम्राज्यपरस्त नीतियों पर चोट करता है. तमाम सत्ता की पार्टियां इस दलाल अर्थतंत्र का हिस्सा हैं, लिहाजा मुख्यधारा की राजनीति में मुख्य प्रतिपक्ष ने जो जगह छोडी है, उसे नागरिक समाज की शक्तियां और दूसरे जन-आन्दोलन भर सकते हैं. इन आन्दोलनों की तमाम कमियों कमजोरियों के बावजूद लोगों का इनके आह्वान पर जुटना स्वाभाविक है. ऐसे में सरकार इन पर हर कहीं दमन पर उतारू है.
रामदेव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा, उनके द्वारा संघ परिवार के नेटवर्क का इस्तेमाल और संघ द्वारा उनके इस्तेमाल का अवसरवाद , खुद रामदेव के ट्रस्ट की परिसंपत्तियों के विवादित स्रोतों के बारे में शायद ही किसी सजग व्यक्ति को भ्रम हो. दिल्ली आने से पहले से ही सरकार के साथ उनका मोल-तोल जारी था. उन्होंने लोकपाल विधेयक में प्रधानमंत्री और जजों को जांच के दायरे में शामिल न किए जाने की मांग कर नागरिक समाज द्वारा प्रस्तावित विधेयक को कमज़ोर करने और सरकार को खुश करने की भी कोशिश की थी. हवाई अड्डे पर सरकार के कई मंत्रियों का उनसे मिलने पहुँचना , बालकृष्ण का आन्दोलन आगे न चलाने के वचन वाला पत्र , सभी कुछ सरकार और उनके बीच बहुविध लेन-देन और सौदेबाजी की तस्दीक करता है, लेकिन इसके बावजूद पुलिसिया दमन और आतंक को कहीं से भी जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. जंतर मंतर पर भी लोगों के जमावड़े पर प्रतिबन्ध लगाकर सरकार ने अपने इरादे ज़ाहिर कर दिए हैं. यह दमन राजधानी में सिर्फ रामदेव पर नहीं रुकेगा, बल्कि किसी भी आन्दोलन , धरने और प्रदर्शन के दमन का रास्ता साफ़ हुआ है. शेष भारत में, आदिवासी इलाकों में, किसानों के आन्दोलनों पर, बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के दोहन के खिलाफ यह दमन जारी ही है. दिल्ली इसका अपवाद नहीं बनी रह सकती.
लिहाजा इस घटना को अघोषित आपातकाल की एक कड़ी के रूप में ही देखना चाहिए और इसके दमनकारी अभिप्राय को नागरिक समाज को कम करके नहीं आंकना चाहिए. हम इस घटना की और इसकी ज़िम्मेदार केंद्र सरकार की घोर भर्त्सना करते हैं और आम नागरिक और बुद्धिजीवियों से भी इसके पुरजोर विरोध की अपील करते हैं.
(प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी )

गोरखपुर में 3 मई को मज़दूरों पर हुई फायरिंग और वहां जारी मज़दूर आन्दोलन के दमन पर मीडियाकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की तीन-सदस्यीय जांच टीम की रिपोर्ट

नई दिल्ली, 3 जून। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में 3 मई को एक कारखाने के मज़दूरों पर हुई फायरिंग की जांच करने वाले मीडियाकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के जांच दल ने वहां ज़िला प्रशासन और पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़े करते हुए समस्त घटनाओं की उच्च स्तरीय न्यायिक जांच कराने की मांग की है।
इस जांच दल ने 19 से 21 मई तक गोरखपुर का दौरा करके और विभिन्न पक्षों से बात करने के बाद आज नई दिल्ली में अपनी जांच रिपोर्ट जारी की। इस जांच दल में दिल्ली के पत्रकार नागार्जुन सिंह, फिल्मकार चारु चन्द्र पाठक और कोलकाता के पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता सौरभ बनर्जी शामिल थे। तीन दिनों के दौरान जांच दल ने विभिन्न प्रशासनिक अधिकारियों, श्रम विभाग, स्थानीय सामाजिक संगठनों, राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों, श्रम संगठनों, मीडियाकर्मियों, श्रमिकों, श्रमिक नेताओं और प्रबुद्ध नागरिकों से मुलाकात करके इस पूरे घटनाक्रम की विस्तृत जांच की।
रिपोर्ट के अनुसार फायरिंग की घटना का तात्कालिक कारण यह था कि कई कारखानों के करीब 1500 मज़दूर 1 मई को आयोजित मज़दूर मांगपत्रक आंदोलन की रैली में शामिल होने के लिए दिल्ली चले गये थे जबकि कारखाना मालिकान इसका विरोध कर रहे थे। दिल्ली से लौटने पर 18 चुनिंदा श्रमिकों को निलंबित कर दिया गया। 3 मई को हथियारबंद लोग जब श्रमिक नेता प्रशांत को जबर्दस्ती फैक्टरी के अंदर ले जाने का प्रयास कर रहे थे तब श्रमिक आक्रोशित हुए और इसके विरोध तथा अपने बचाव में उन्होंने पथराव किया। इसके बाद फैक्टरी के अंदर से हुई फायरिंग में 19 मज़दूर और एक छात्रा घायल हो गये।
जांच टीम इस निष्कर्ष पर पहुंची कि 3 मई को हुई फायरिंग एक अलग-थलग घटना नहीं बल्कि गोरखपुर में दो वर्ष से मालिकों और मज़दूरों के बीच में चल रहे टकराव की ही परिणति है। पिछले लगभग दो वर्ष से मज़दूर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते आ रहे हैं जो अब संगठित रूप ले चुका है। यह फैक्टरी प्रबंधन के लिए चिंता का सबब बन चुका है। श्रमिकों के प्रति प्रशासनिक दृष्टिकोण भी सहयोगात्मक नहीं है। जांच में यह बात मुख्य रूप से उभर कर आई कि श्रमिकों का पक्ष पूरी तरह नहीं सुना जा रहा है और प्रशासनिक स्तर पर उपेक्षा और बल प्रयोग से बात और बिगड़ रही है।
जांच टीम ने अपनी रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश शासन से मांग की है कि अंकुर उद्योग लि. में हुई फायरिंग की उच्च स्तरीय जांच करायी जानी चाहिए। टीम कमिश्नर द्वारा मजिस्ट्रेट जांच के आदेश को असंगत मानती है क्योंकि पूरे प्रकरण में प्रशासनिक भूमिका संदेह के दायरे में है। टीम की अन्य संस्तुतियों में फायरिंग के दोषी व्यक्तियों की गिरफ्तारी, श्रमिकों तथा उनके नेतृत्व से सौहार्दपूर्ण माहौल में वार्ता करके उनकी समस्याओं का समाधान करना, गोरखपुर औद्योगिक क्षेत्र की फैक्टरियों में श्रम कानूनों की वास्तविक तस्वीर सामने लाना और इनमें श्रम कानूनों के अनुपालन को सुनिश्चित कराना, पुलिस की भूमिका की जांच कराना और गोलीकांड में घायल लोगों को सरकार द्वारा उचित मुआवजा दिया जाना शामिल है।

- नागार्जुन सिंह, वरिष्ठ उप-सम्पादक, हिन्दुस्तान, नई दिल्ली
फोनः 9953623417, ईमेलः दंहंतरनदंण्ेपदही/हउंपसण्बवउ
- सौरभ बनर्जी, फोनः 9811841341, ईमेलः ेवनतंअइंदमतरमम25/लंीववण्बवण्पद
- चारु चन्द्र पाठक, दिल्ली, फोनः 9818376996, ईमेलः बींतनबींदकतं1234/हउंपसण्बवउ

शुक्रवार, 20 मई 2011

अवध की फरूआही, महोबा का आल्हा और भिखारी ठाकुर का तमाशा




-कई क्षेत्रों की लोकसंस्कृति की झलक दिखी जोगिया में -
लोकरंग 2011
कुशीनगर के जोगिया गांव में लगातार चैथी बार लोकरंग का आयोजन 26 और 27 अप्रैल को हुआ। इस बार का आयोजन और ज्यादा व्यवस्थित, भव्य और विविधता वाला था। इस बार एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि कार्यक्रमों की प्रस्तुति के लिए कथाकार सुभाष कुशवाहा की अगुवाई वाली आयोजक संस्था लोकरंग सांस्कृतिक समिति ने एक एकड़ में एक विशाल परिसर और उसमें एक विशाल मुक्ताकाशी मंच का निर्माण करा दिया था। इससे लोक कलाकारों को अपने कार्यक्रम के मंचन और दर्शकों को कार्यक्रम का पूरा आनंद लेने का मौका मिला।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण कवि रामधार त्रिपाठी की याद में समर्पित लोकरंग का उद्घाटन जनसंस्कृति मंच के राष्टीय अध्यक्ष एवं प्रख्यात आलांेचक प्रो मैनेजर पांडेय ने किया। इस मौके पर उन्होंने लोकरंग-2 पुस्तक और लोकरंग स्मारिका का विमोचन भी किया। उद्घाटन के मौके पर उन्होंने कहा कि लोक कलाओं में आपस में जोड़ने की शक्ति होती है। विद्यापति मैथली के कवि हैं लेकिन देश के हर हिस्से में उन्हें सुना और समझा जाता है। इसी प्रकार मीराबाई राजस्थान से लेकर मिथिला की कवि हैं। प्रो पांडेय ने लोक कलाओं की तीन खास विशेषताओं-शक्ति, गति और वातावरण को अपने में समेटने की क्षमता का जिक्र करते हुए कहा कि आज लोक कला और लोक संस्कृति पर पर सबसे अधिक खतरा बाजार का है। वह इसे निगल जाना चाहता है। लोकरंग जैसे कार्यक्रम लोक कलाओ को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
प्रो पांडेय के उद्घाटन वक्तव्य के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों की शुरूआत गांव की लड़कियों द्वारा प्रस्तुत सोहर और कजरी से हुई। इसके बाद पोखर भिंडा मटिहिनिया गांव से आए चिंतामणि प्रजापति और उनके साथियों ने खजड़ी वादन के सााि निर्गुन प्रस्तुत किया। आज के कार्यक्रम का प्रमुख आकर्षण पटना के निर्माण कला मंच की नाट्य प्रस्तुति विदेशिया रही। संगीत प्रधान लोक नाटकों की देश और विदेश में सैकड़ों प्रस्तुतियां कर चुकी इस संस्था ने भिखारी ठाकुर के तमाशा विदेशिया को जोगिया मंे जीवंत कर दिया। संजय उपाध्याय द्वारा निर्देशित इस नाट्य प्रस्तुति में काम की तलाश में कलकत्ता जाने वाले युवा मजदूर की पत्नी की वेदना, दुख, पीड़ा बड़ी शिद्दत से व्यक्त हुई। इस नाट्य संस्था ने लोकरंग के दूसरी शाम को हरसिंगार नाटक का मंचन किया। यह नाटक पारम्परिक लोक नाट्य डोमकथ के हरबिसन दम्पति की कहनी के जरिए स्त्री-पुरूष सम्बन्धों की जटिलताओं को सामने लाता है। दोनों ही नाटकों में निर्माण कला मंच के कलाकारों ने अपने अभिनय से ग्रामीण दर्शकों को सम्मोहित सा कर लिया।
दो दिवसीय इस कार्यक्रम में चन्द्रभान सिंह यादव और उनके साथियों ने महोबा शैली का आल्हा गायन प्रस्तुत किया तो फैजाबाद से अवधी लोक समूह ने फरूआही पेश की। आल्हा गायन की बुंदेलखंड में मुख्यतः चार शैलिया-महोबा, करगवां, दतिया और सागर गायन प्रचलित हैं। ढोलक और मंजीरें के थाप पर चन्द्रभान सिंह ने जब ओजस्वी स्वर में आल्हा, उदल द्वारा अपने पिता के हत्या का बदला लिए जाने की लोककथा सुना कर लोगों को रोमांचित कर दिया। अवधी लोक समूह द्वारा प्रस्तुत फरूआही एकदम नए शैली का था और इस समूह ने परम्परागत फरूआही नृत्य व गीत में कई प्रयोग किए थे। नृत्य के दौरान कलाकरों ने हैरतअंगेज करतब दिखाए। नए वाद्य यंत्रों और नृत्य की नई भंगिमाओं ने लोगों का मन मोह लिया। बुन्देली कछवाहा समाज का अवधूती शब्दों को गायन सुनना एक नए अनुभव से गुजरना था। वाद्य यंत्र ढपली, किकहरी पर दाता साईं की अराधना मेें यह गायन कछवई समाज करता है। दाता साईं के शब्द बहुत ही गूढ हैं और इस संगीत व साहित्य परम्परा पर ज्यादा काम नहीं हुआ है। लोकरंग में मंगल मास्टर और अंटू तिवारी ने भोजपुरी गीतों की प्रस्तुति की। लोकरंग में आए सभी कलाकारों को आयोजन समिति द्वारा स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया।

मिथकों की प्रासंगिकता पr हुई विचारोत्तेजक संगोष्ठी

लोकरंग के दूसरे दिन दोपहर में लोकसंस्कृति में मिथ की प्रासंगिकता पर विचारोत्तेजक संगोष्ठी हुई। संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात आलोचक प्रो मैनेजर पांडेय ने कहा कि मिथकों की बात करते समय लोक गाथा, लोकरीति, लोकविश्वास, लोकरूढि को अलग-अलग रख कर विचार करने की जरूरत है। उन्होंनें कहा कि कथा स्वभाव से ही मिथकीय है, इसलिए कथा में सर्वाधिक मिथक गढ़े गए। प्रो पांडेय ने कहा कि सत्ता लोक का धन, सम्पदा का ही अपहरण नहीं करता बल्कि कला और दिमाग पर भी कब्जा करने की कोशिश करता है। इसलिए मिथकों पर कब्जा करने की राजनीति पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। सत्ता ने लोकसंस्कृति और मिथकों की पहले उपेक्षा की, फिर विरोध किया और उससे भी काम नहीं चला तो विकृत करने का प्रयास किया। उन्होंने पौराणिक एवं ऐतिहासिक मिथकों की चर्चा करते हुए कहा कि मिथकों को पवित्र मानकर उस पर जल चढाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने इतिहास से मिथकों के गहरे रिश्ते को समझने पर जोर दिया।
इसके पूर्व वरिष्ठ लेखक डा तैयब हुसैन ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि लोक संस्कृति में सब कुछ ठीक नहीं है। इसमें से अपने हित की बात को लेना होगा। उन्होंने मिथक की तुलन उस चाकू की तरह की जो डाक्टर के हाथ में होने पर जान बचाने के काम में आता है और हत्यारें के पास होने पर जान लेने में। युवा आलोचक बजरंग विहारी तिवारी ने अपसंस्कृति और जनसंस्कृति के बीच निरन्तर टकराव की बात करते हुए कहा कि मिथकों का सबसे अधिक निर्माण दलित साहित्य ने किया है। उन्होंने लोकसंस्कृति की संशलिष्टता को राजनीति की तरह ढालने के प्रयाए का विरोध किया। वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन ने कहा कि मिथकों का इस्तेमाल सधे ढंग से करना होगा। कवि एवं रीवां विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के दिनेश कुशवाह ने कहा कि मिथक लोक साहित्य में ऐसे रचे-बसे होते हैं कि सत्य से अधिक शक्तिशाली हो जातंे हैं। उन्होंने इस बात से असहमति जताई कि मिथकों को कोई वैज्ञानिक आधार है। हाजीपुर से आए डा प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन ने कहा कि विज्ञान चाहे कितनी भी तरक्की कर ले, मिथक हमारे जीवन को संजीवनी देते रहेंगे। गलत या विकृत मिथक खोटे सिक्कों की तरह नहीं चलते हैं। वरिष्ठ पत्रकार अशोक चैधरी ने संगोष्ठी में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि समाज को मिथकों के जंजाल से निकालकर ठोस यथार्थ पर खड़ा करने की जरूरत है। उन्होंने पूरे बहस को यह कह कर एक नई दिशा दे दी कि आखिर यह एक मिथक ही तो है कि पूंजीवाद समाप्त नहीं हो सकता है। यह मिथक तो आधुनिक सत्ताओं द्वारा सचेतन पर गढे गए हैं जिनको तोड़ना आज की समय की सबसे बड़ी जरूरत है। मिथ के समाज शास्त्र पर उल्लेखनीय काम करने वाले डा गोरेलाल चंदेल ने कहा कि पौराणिक मिथ ज्यों का त्यों लोक मिथक में नहीं आता है। लोकसंस्कृति में मिथ लोक को उर्जा एवं षक्ति देता है। जो लोक के लिए उपयोगी है वही लोकसंस्कृति में बना रहता है। छत्तीसगढ़ी गौर उत्सव के कई सन्दर्भों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इतिहास, मिथ और समाजशास्त्र का निरन्तर द्वंद रहता है और इसके भीतर से मिथ का लोकव्यापीकरण होता है।
गोष्ठी का संचालन कवि एवं जनसंस्कृति मंच लखनउ के संयोजक कौशल किशोर ने कहा कि जनसंस्कृति श्रम और संघर्ष की संस्कृति है। ईश्वरीय सत्ता को स्थापित करने वालों ने मिथकों का जाल बुना है लेकिन इसके बरक्स जनता ने अपने मिथक रचे और गढे हैं। संगोष्ठी में डा दुखी शुक्ल, सुधांशु कुमार चक्रवर्ती ने भी अपने विचार रखे। धन्यवाद ज्ञापन लोकरंग सांस्कृतिक समिति के संयोजक एवं कथाकार सुभाष कुशवाहा ने किया।

प्रतिरोध का सिनेमा का दो दिवसीय इन्‍दौर फिल्‍मोत्‍सव

मौजूदा दौर में आम बंबईया फिल्मों द्वारा समय व समाज की वास्तविकताओं से
दूर जिस अपसंस्कृति व फूहड़ता को समाज में बड़े पैमाने पर फैलाया जा रहा
है, उसके विरुद्ध भी एक और सिनेमा है जो हमें समाज की हकीकत से रूबरू
कराने का सार्थक प्रयत्न कर रहा है। एक ऐसा सिनेमा जिसमें आज के सुलगते
हुए सवालों को उठाया गया है, जिसके केंद्र में है हाशिये के लोग, उनका
जीवन संघर्ष, समस्याएं और भूमंडलीकरण के दौर में जन्म लेते संवेदनहीनता
के नये स्वरूप। प्रतिरोध का सिनेमा प्रतिबद्ध फिल्मकारों की ऐसी ही
फिल्मों को मंच देने का एक सार्थक प्रयत्न है। जन संस्कृति मंच द्वारा
इलाहाबाद, बरेली , लखनऊ, पटना, गोरखपुर, नैनीताल, भिलाई इत्यादि विभिन्न स्थानों पर गत छः वर्षों में 16 फिल्मोत्सव इसी तर्ज पर सफलतापूर्वक आयोजित किये जा चुके
हैं। सांस्कृतिक एवं सामाजिक सरोकारों को पूर्णत: समर्पित इंदौर की कला
संस्था 'सूत्रधार’ के विशेष अनुरोध पर जन संस्कृति मंच ने म.प्र. में
पहली बार इंदौर में दो दिवसीय प्रतिरोध का सिनेमा फिल्मोत्सव का आयोजन
किया। दिनांक 16 व 17 अप्रैल, 2011 को इंदौर प्रेस क्लब के राजेंद्र माथुर
सभागृह में यह फिल्मोत्सव 'सूत्रधार’ एवं 'जन संस्कृति मंच’ के संयुक्त
तत्वावधान में इंदौर प्रेस क्लब के सहयोग से संपन्न हुआ।
शुभारंभ कार्यक्रम में भूमिका रखते हुए 'सूत्रधार’ के संयोजक सत्यनारायण
व्यास ने फिल्मोत्सव आयोजित करने के उद्देश्य को स्पष्ट किया। 'जन
संस्कृति मंच’ के फ़िल्म समूह द ग्रुप के संयोजक संजय जोशी ने कार्यक्रम की रूपरेखा पर प्रकाश
डालते हुए पूर्व में आयोजित किये गये फिल्मोत्सवों के अनुभवों को दर्शकों
के समक्ष रखा। उन्होंने आशा व्यक्त की कि भविष्य में इंदौर में प्रतिवर्ष
तीन या चार दिवसीय फिल्मोत्सव भी आयोजित किये जा सकेंगे। विशेष अतिथि
सुप्रसिद्ध फिल्म लेखक व समीक्षक श्री बृजभूषण चतुर्वेदी ने इंदौर में
पहली बार आयोजित किये जा रहे समस्यामूलक फिल्मों के इस उत्सव के प्रति
प्रसन्नता व्यक्त करते हुए जानकारी दी कि बंबई, दिल्ली इत्यादि बड़ी
जगहों पर कई वर्षों से डॉक्यूमेंटरी फिल्मों के उत्सव नियमित तौर पर
आयोजित किये जाते हैं, लेकिन इंदौर में 'सूत्रधार’ व 'जन संस्कृति मंच’ ने यह
सार्थक पहल की है। उन्होंने याद दिलाया कि 'सूत्रधार’ ने ही गत वर्ष
दिल्ली के स्वयंसेवी संगठन 'साधो’ के सहयोग से एक काव्य फिल्मोत्सव भी
आयोजित किया था, जिसे देखना एक अद्भुत अनुभव रहा। कार्यक्रम के मुख्य
अतिथि सुप्रसिद्ध फिल्म समीक्षक व फिल्म विधा के पुरोधा श्रीराम
ताम्रकर ने आयोजन पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुये आशा व्यक्त की कि इस तरह
के लीक से हटकर फिल्मों के उत्सव भविष्य में भी आयोजित किये जाते रहेंगे।
इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष प्रवीण खारीवाल ने अपने संबोधन में
आश्वस्त किया कि इंदौर प्रेस क्लब भविष्य में भी इस तरह के आयोजन को
पूर्ण सहयोग देता रहेगा।
फिल्मोत्सव का शुभारंभ सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक संजय काक की फिल्म
‘जश्ने आजादी’ से हुआ। लगभग सवा दो घंटे की यह फिल्म कश्मीर के जनमानस को
अभिव्यक्त करते हुए कई सवाल उठाती है और दर्शकों को उद्वेलित कर देती है।
फिल्म ने सचमुच बड़ी गहमागहमी पैदा की , इसी से जाहिर है कि समाप्ति के बाद
भी दर्शक फिल्म के बारे में और कश्मीर के बारे में और भी संवाद करना
चाहते थे।
दूसरे दिन रविवार 17 अप्रैल को फिल्मोत्सव का प्रारंभ बच्चों के लिए बनाई
गई एक बड़ी प्यारी फ्रेंच फिल्म 'द रेड बलून’ से हुआ। एक बच्चे व लाल
गुब्बारे की मैत्री को बड़े स्वाभाविक व मार्मिक रूप से इस फिल्म में
चित्रित किया गया है। बड़ी संख्या में उपस्थित बच्चों ने फिल्म का भरपूर
आनंद लिया। तत्पश्चात ‘ ओपन-ए-डोर’ सीरिज की छह संवाद रहित लघु फिल्में
प्रदर्शित की गईं। विभिन्न देशों की इन फिल्मों का केंद्रीय तत्व यह
निर्देश था कि एक बंद दरवाजे के खुलते ही पांच मिनट में बच्चे क्या करेंगे
या क्या कर सकते हैं? कई देशों के फिल्मकारों ने इस थीम पर सुंदर फिल्मों
का निर्माण किया, जिनमें से छह फिल्मों को यहां दिखाया गया ।
अगली फिल्‍म संकल्प मेश्राम निर्देशित ‘ छुटकन की महाभारत’ के केंद्रीय पात्र छुटकन के दिवा स्‍वप्‍नों से पैदा हुई हास्‍यास्‍पद स्थितियों ने दर्शकों को लोटपोट कर दिया।
भोजनावकाश के बाद के सत्र में दो एनिमेशन फिल्‍म ‘ ऐ चेयरी टेल’ व ‘नेबर्स’ एवं चार म्यूजिक विडियो फिल्‍म ‘अमेरिका अमेरिका’, ‘गांव छोड़ब नाही’, ‘रिबन्‍स फॉ‍र पीस ’ व ‘ मैंने तुझसे ये कहा’ के अलावा चार लघु फिल्‍में ‘गाड़ी लोहरदगा मेल’, ‘शिट’, ‘प्रिंटेड रेनबो’ और ‘नियामराजा का विलाप’ दिखाई गई। रांची-लोहारदगा के बीच चलने वाली पेसेंजर ट्रेन के अंतिम सफर में
लोकगायकों व कलाकारों द्वारा अभिव्यक्त किये गये उद्गारों को 'गाड़ी लोहरदगा मेल’ में बड़ी
मार्मिकता से फिल्माया गया। 'शिट’ में आजादी के 63 वर्ष बाद भी अपने सिर पर मैला ढोते सफाईकर्मियों की समस्या को उठाया गया है। अकेलेपन से जूझती एक अकेली बूढ़ी औरत व उसकी साथी बिल्‍ली की भावुक कथा ‘प्रिंटेड रेनबो’ में दर्शाई गई है। उड़ीसा में नियागिरी पहाड़ को राज्य सरकार द्वारा एक मल्टीनेशनल कंपनी को बेच दिये जाने पर पैदा हुए पर्यावरण संकट का नियामराजा का मिलाप में हृदयस्पर्शी चित्रण किया गया है।
सायंकालीन अंतिम सत्र सुप्रसिद्ध फिल्मकार आनंद पटवर्धन की सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली फिल्म- 'राम के नाम’ से प्रारंभ हुआ। सवा घंटे की इस फिल्म में धर्म के नाम पर सांप्रदायिक उन्माद, असहिष्णुता और हिंसा फैलाने वाली कुत्सित राजनीति का भंडाफोड़ करने के साथ ही सच्चाई से रूबरू कराने का प्रयत्न भी किया गया है। समारोह की अंतिम प्रस्तुति दो घंटे की फीचर
फिल्‍म ‘बाएं या दाएं’ थी। फिल्‍मकार बेला नेगी की इस प्रथम फिल्‍म को गंभीर रुचि के फिल्म दर्शकों व समीक्षकों द्वारा पूरे देश में सराहा गया है।
इंदौर फिल्मोत्सव में बेला नेगी स्वयं भी उपस्थित थीं। उन्होंने अपनी इस फिल्म के प्रदर्शन के पूर्व दर्शकों से अपने अनुभव भी सांझे किए। पूर्ण्‍रूप से उत्तराखंड में फिल्माई गई इस फिल्म के निर्माण में आई व्यावहारिक दिक्कतों व कठिनाइयों के बारे में भी उन्होंने काफी जानकारी दी। फिल्म में रमेश नाम के एक सीधे-सादे पहाड़ी युवक की कहानी है जो बंबई की ग्लैमरयुक्त दुनिया से उकताकर अपने गांव लौट आया है और वहीं सादगी और शांति का जीवन व्यतीत करना चाहता है। गांव से जबकि हर व्यक्ति बंबई जाने के सपने दिन-रात देखता है। वहीं इस युवक का गांव में लौट कर आना लोगों को हजम नहीं होता। एक सीधी-सादी कहानी को जितनी भावुकता व शिद्दत से बेला ने फिल्माया है वह देखने से ताल्लुक रखता है। फिल्मोत्सव में उपस्थित
दर्शकों ने भी फिल्म को भरपूर सराहा और फिल्म समाप्ति के पश्चात भी बेला से गुफ्तगू होती रही।
इंदौर फिल्मोत्सव में दो दिनों में कुल 21 फिल्में दिखाई गईं। निश्चित ही दर्शकों के मानस में इस फिल्मोत्सव ने एक अमिट छाप छोड़ी है।
इंदौर के किसी आयोजन में सम्‍भवत: पहली बार दर्शकों से सहयोग करने की अपील की गई। इस वास्ते आयोजन स्थल के बाहर सहयोग के लिए दो डिब्बे रखे गए थे जिनमें लोगों ने प्रतिरोध का सिनेमा की मूल भावना का सम्‍मान करते हुए यथायोग्‍य सहयोग भी किया। हॉल के बाहर गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के सक्रिय कार्यकर्ताओं बैजनाथ मिश्र और गोपाल राय द्वारा संचालित फिल्मों की डीवीडी और पुस्तक प्रदर्शनी ने भी लोगों को आयोजन से जुड़े रहने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सत्यनारायण व्यास
संयोजक, सूत्रधार, इंदौर

अन्ना हजारे का आंदोलन, उसका रूप, उद्देश्य और सार्थकता

प्रो मैनेजर पांडेय, अध्यक्ष जनसंस्कृति मंच
अन्ना हजारे के आंदोलन और अनशन पर जल्दीबाजी में राय बनाना, उसे स्वीकार करना या अस्वीकार करना ठीक नहीं है क्योंकि अन्ना हजारे ने घोषित रूप से जिस समस्या के खिलाफ आंदोलन व अनशन किया था, उस समस्या की गंभीरता, उसको हल करने की जरूरत देश भर के व्यापक जनसमुदाय को महसूस हो रही है और इसी का परिणाम है कि अन्ना के आंदोलन और अनशन को समाज के विभिन्न वर्गों व समुदायों का इतना बड़ा समर्थन मिला। अन्ना हजारे एक गांधीवादी व्यक्ति हैं; उनके व्यक्तित्व, विचार, कार्यशैली में गांधी के विचारों और कार्यशैली का गहरा प्रभााव दिखाई देता है। जैसे स्वंय गांधी के व्यक्तित्व, विचार और कार्यशैली में अनेक अंतर्विरोध थे, इसके बावजूद गांधी स्वाधीनता आंदोलन के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे। गांधीवादी होने के नाते अन्ना के विचारों और कार्यशैलियों में अन्तर्विरोध सभव है लेकिन उन अन्तर्विरोधों के कारण जैसे स्वाधीनता आंदोलन में गांधी की भूमिका का महत्व समाप्त नहीं हो जाता, उसी तरह से अन्ना के विचारों, कार्यशैली में अंतर्विरोध के कारण उनके आंदोलन, अनशन का महत्व कम नहीं होता। मेरी नजर में अन्ना के आंदोलन, अनशन का सबसे बड़ा महत्व तो यही है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा पूरे भारतीय समाज के सामने अपनी सारी जटिलताओं के साथ उजागर हुआ और भ्रष्टाचार को खत्म करने की व्यापक चिंता हर तबके के लोगों के मन में पैदा हुई। यह कोई आज के दौर के भारतीय राजनीति, समााजिक, आर्थिक परिस्थिति में छोटी बात नहीं है।
अन्ना हजारे के आंदोलन के पीछे कौन लोग थे, आंदोलन का उद्ेश्य क्या है, अन्ना व उनके साथी जिस लोकपाल बिल और लोकपाल नाम की संस्था की बात कर रहे हैं, उसका स्वरूप क्या है, क्या होना चाहिए, यह सभी बातें विचारणीय हैं और इस पर बहस भी होनी चाहिए। देखिए, अन्ना के आंदोलन का समर्थन करने वाले दो तरह के लोग थे-एक जो खुले रूप से आंदोलन के साथ थे। कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो छिपे तौर पर अन्ना का समर्थन कर रहे हैं। ऐसे लोगों पर अधिक बात करना मुश्किल है क्योंकि केवल अनुमान में वास्तविकता से ज्यादा अनुमान करने वाले के इरादे की अभिव्यक्ति होती है। जहां तक खुले रूप से समर्थन करने वालों में एक न्यायाधीश जो कर्नाटक की सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ काम कर रहे हैं, एक वकील जो लोकतांत्रिक अधिकारों व मानवाधिकार के हनन के विरूद्ध मुकदमे लड़ा करते हैं, एक आर्यसमाजी स्वामी जो माओवादियों तक के समर्थन में रहने के कारण बहुत लोगों के आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। मै हेगड़े, प्रशांत भूषण, अग्निवेश की बात कर रहा हूं। इस आंदोलन का समर्थन करने वालों में वंदना शिवा भी थीं। यही नहीं मै जिस दिन जंतर-मंतर पर उपस्थित था, मुस्लिम समुदाय के एक बड़े नेता जो कई संस्थााओं के अध्यक्ष हैं, उन्होंने अपने समुदाय की ओर से अन्ना हजारे के आंदोलन और उसके उद्देश्यों का समर्थन किया। एक तरफ आंदोलन का इतना व्यापक तबकों का समर्थन था तो दूसरी ओर आंदोलन का विरोध करने वाले कौन लोग थे ? मेरी जानकारी में आंदोलन का विरोध करने में दो व्यक्ति खास तौर पर सामने आए थे-कांग्रेस के दिग्विजय सिंह और दूसरे अमर सिंह। इन दोनों की भारतीय राजनीति और भारतीय समाज में कितनी साख व कैसी छवि है, इससे सब परिचित हैं। मै तो यह कहूंगा कि अमर सिंह जिस चीज का विरोध करें उसमें कुछ न कुछ अच्छाई जरूर होगी, इसका अनुमान किया जा सकता है।
अन्ना हजारे के कुछ बयानों के कारण थोड़ी गलतफहमियां पैदा हुईं। एक तो उन्होंने नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा की। इससे कुछ दुखी और नाराज हुए। यह दुख व नाराजगी समझ में आने लायक है और जायज भी है पर बाद में अन्ना ने जो सफाई दी, उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। मै इस प्रसंग में एक बात और कहूंगा। अपने देश में हर आंदोलन के विचार और व्यवहार में साजिश सूंघने और खोजने की कुछ लोगों की आदत है जिसको वह कभी-कभी क्रांतिकारी दृष्टिकोण के रूप में भी जाहिर करते हैं। बहुत पहले काल माक्र्स ने पेरिस कम्यून की घटना पर दो साक्षात्कार दिए थे जिसका मैने हिन्दी में अनुवाद किया था जो मेरी किताब संकट के बावजूुद में है। इसमें से एक साक्षात्कार में काल माक्र्स ने कहा था कि क्रांति केवल एक पार्टी ही नहीं करती पूरा देश और समाज करता है। अन्ना हजारे व्यक्तिगत रूप से कोई क्रांतिकारी व्यक्तित्व नहीं है। उनका आंदोलन, अभियान भी क्रांतिकारी नहीं है लेकिन पूरे देश-समाज को क्रांतिकारी बनाने के लिए जो पहला कदम जरूरी है, वह है किसी ऐसी बड़ी समस्या के रूप में देश की जनता को जगाने और आन्दोलित करने का काम, अन्ना हजारे के माध्यम से हुआ।
भ्रष्टाचार का गहरा रिश्ता पूंजीवाद से है। अपने जन्म से ही पूंजीवाद झूठ और लूट की व्यवस्था रही है। आज उसके झूठ और लूट का अनंत विस्तार हुआ है। इसलिए सचमुच इस देश से भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए पूंजीवाद के विरूद्ध व्यापक जागरण और आंदोलन की जरूरत है। मुझे चिंता के साथ अफसोस है कि इस दिशा में काम करने के बदले जनजागरण का पहला कदम जो हजारे ने उठाया है, उस कदम की आलोचना और निंदा करने में कुछ लोग लगे हुए हैं। मै तो यह भी कहूंगा कि हजारे और उनके सहयोगी जिस लोकपाल बिल, विधेयक की बात कर रहे हैं, उसके स्वरूप पर और लोकपाल की नियुक्ति की शर्तों पर गंभीरता से विचार होना चाहिए और प्रस्तावित मसौदे की कमियांे को सामने लाने, लोकपाल विधेयक को मजबूत, कारगर और परदर्शी बनाने की दिशा में अपनी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए। केवल उस आंदोलन की निंदा में नहीं रहना चाहिए। प्रस्तावित विधेयक में यह बात है कि लोकपाल की नियुक्त में भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत या भारत रत्न प्राप्त लोगों की सलाह ली जानी चाीिहए। भारत सरकार या कोई भी सरकार कैसे लोगों को पुरस्कृत और सम्मानित करती है, सब जानते हैं। इसलिए केवल भारत रत्न प्राप्त करना, लोकपाल नियुक्ति में सलाह देने की पर्याप्त योग्यता नहीं हो सकती है। लता मंगेशकर भारत रत्न प्राप्त हैं, उनके गायन के हम उनका सम्मान करते हैं लेकिन लोकपाल की नियुक्ति में उनकी उपयोगी भूमिका हो सकती है, मुझे नहीं लगता। भारत मूल के जिन लोगों को नोबेल, मैग्सेसे पुरस्कार मिला है, उन लोगों की भी सलाह लेनी की बात कही गई है। मुझे इस प्रसंग में पहली आपत्ति तो यही है कि इन लोगों को पुरस्कार कानून बनाने या लोकपाल की नियुक्ति करने की योग्यता के लिए नहीं मिला है बल्कि साहित्य, कला, संस्कृति, विज्ञान आदि में योगदान के लिए मिला है। इसलिए जिन काराणों से उनको पुरस्कार मिला है, उसी में उनकी सलाह को कोई अर्थ है। कुल मिलाकर लोकपाल विधेयक और लोकपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध मंे जो बातें सामने आ रही हैं, उससे जाहिर है उन्ही से सलाह ली जाएगी जो देश के सम्पन्न, सभ्रान्त अभिजन है जबकि भ्रष्टाचार की मार का सबसे अधिक शिकार आम आदमी है। क्या लोकपाल बिल के बनाने में भारत के किसानों, मजदूरों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों, दलितों आदि की भी कोई भूमिका, आवाज होगी ? इन बातों पर ध्यान देने व जोर देने की जरूरत है न कि अपनी संतुष्टि के लिए बाल की खाल निकालने की प्रक्रिया में लगे रहने की। शुद्धतावाद और आत्ममुग्धता से न कोई जनजागरण होता है न सामाजिक आंदोलन या सामाजिक परिवर्तन होता है। मै तो अंत में यह भी कहूंगा कि अभी हमारे देश में सच्चे लोकतंत्र की रक्षा करने का सवाल सबसे बड़ा सवाल है और सच्चे लोकतंत्र का एक मात्र दुश्मन है राजनीति में भ्रष्टाचार की संस्कृति। सच्चे लोकतंत्र की रक्षा के बाद ही समाजवाद को ले आने की कोई संभावना बन सकती है।
इस आंदोलन को माीडिया द्वारा बहुत हाइप दिए जाने के सवाल पर मेरा कहना है कि प्रिंट मीडिया की तुलना में इलेक्टानिक मीडिया ने इससे अधिक कवरेज दिया। इलेक्टनिक मीडिया के लिए कोई भी सनसनीखेज मामला अधिक आकर्षक होता है, अब उसमें विचार-विश्लेषण की संभावना खत्म हो गई है। समर्थन करने वाले लोगों को व्यक्तिगत जानकारी के आधाार पर और जो आंखों से देखा उसमें सात साल के बच्चों से लेकर 77 साल के बूढे थे। इसमें छात्र-छात्राएं, वैज्ञानिक, साहित्यकार, अध्यापक थे। मध्य वर्ग के लोग थे, कुछ राजनीतिक नेता थे, फिल्मी दुनिया के भी कुद लोग थे। ये सब के सब केवल मनोरंजन की तलाश में दिल्ली की सड़कों पर घूमने वाले मघ्य वर्ग के लोग नहीं थे। रही बात देश के पैमाने पर शहरों से जो सूचनाएं मिली है कि अनेक वर्गों के लोग समर्थन कर रहे थे। आप यह कह सकते हैं कि मजदूर और उनके संगठन दिल्ली में नहीं थे तो यह मजदूरों को संगठित करने और उनका आंदोलन चलाने वालों का दायित्व था कि मजदूरों की आवाज भ्रष्टाचार के खिलाफ समाज के सामने आए। वैसे इस आंदोलन का विरोध करने वाले जो लोग हैं, वे क्या किसान-मजदूर हैं या मध्य वर्ग के आत्ममुग्ध बुद्धिजीवी हैं या भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे राजनीतिक दल के नेता।
इस आंदोलन को केवल अन्ना हजारे और उनके पक्ष में सक्रिय पांच-दस लोगों पर छोड़कर इस देश के जागरूक लोगों, बुद्धिजीवियों, देशभक्तों, इमानदार राजनीतिज्ञों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बैठ नहीं जाना चाहिए। दूसरे के आन्दोलनों की आलोचना व निन्दा करने से बेहतर है कि स्वंय उन आन्दोलनों को सही दिशा देने के लिए सक्रिय होना या नया आन्दोलन खड़ा करना। सबसे पहला और आखिरी सवाल है कि भ्रष्टाचार इस देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था, सामाजिक संवेदनशीलता, सांस्कृतिक चेतना के लिए कैंसर की तरह खतरनाक है या नहीं ? यदि है तो उससे लड़ने के लिए विभिन्न तरीकों से लगना चाहिए जो अन्ना हजारे से सहमत हैं या नहीं सहमत हैं।

-समकालीन जनमत से साभार